कभी नेह के मेह रहा करते थे जिन पलकों में
और कभी हम खोये रहते थे जिनकी अलकों में.
उन पलकों से आज प्रश्न प्रायः बरसा करते हैं
अलकों में अब छाँव नहीं सूखे बादल रहते हैं.
जिस पग ध्वनि से मन वीणा के तार बजा करते थे
देह गंध से जिसकी, हरसिंगार झरा करते थे.
उस पग ध्वनि में साज नहीं हैं, उलाहनें-तानें हैं
हरसिंगार की मधुर गंध से अब हम अनजाने हैं.
थे हम स्वयं जवाब, सवालों से भी खूब लड़े हैं
अनुतरित से प्रश्न बने पर खुद ही आज खड़ें हैं.
4 comments:
भावमयी प्रस्तुति
Sangeeta ji,
Dhnyvad, Aapko rachna achhi lagi.Main apeksha karta hun ki any rachnaaon ke baare men bhee apni ray den.
जिस पग ध्वनि से मन वीणा के तार बजा करते थे
देह गंध से जिसकी, हरसिंगार झरा करते थे.
उस पग ध्वनि में साज नहीं हैं, उलाहनें-तानें हैं
हरसिंगार की मधुर गंध से अब हम अनजाने हैं
जाने क्यों ऐसा हो जाता है ...मन को छूती हुई पंक्तियाँ.
shikha ji,
prashansa ke liye aabhar,dhanyawad.
S.N.Shukla
Post a Comment