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Editor "LAUHSTAMBH" Published form NCR.

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Monday, November 11, 2013

देश को खाते रहे

                         देश को खाते रहे

   दीमकों से हम इधर घर को बचाते रह गए ,
   और  कीड़े  कुर्सियों के,  देश  को खाते  रहे.

   हम इधर लड़ते रहे आपस में दुश्मन की तरह,
   उधर  सरहद  पार से  घुसपैठिये  आते  रहे .

   जल रहा था देश , दंगों से, धमाकों से इधर ,
   शीशमहलों में उधर वे जाम  टकराते  रहे .

   झूठ की अहले सियासत और अपना ऐतबार,
   वे दगा  करते  हम फिर भी आजमाते  रहे .

   मुफलिसी से तंग हम, करते गुजारिश रह गए,
   वे हमें हर बार केवल , ख्व़ाब  दिखलाते  रहे  .

   प्याज-रोटी भी हुआ मुश्किल, गरानी इस कदर,
   मुल्क  मालामाल  है , यह गीत  वे  गाते  रहे  .

                        - एस.एन.शुक्ल 

Thursday, May 2, 2013

(176) हिम सदृश मुझको गलना ही है


   पिछले करीब दस माह से कैंसर से लड़ रहा हूँ। यह जंग अभी भी जारी है , इसलिए ब्लॉग पर सक्रियता भी बाधित रही। आप मित्रों की शुभकामनाओं का ही असर है कि अब बहुत  सुधार है। आशा है मेरी अनुपस्थिति और जवाब न दे पाने की विवशता को समझेंगे।

                       हिम सदृश मुझको गलना ही है 

सूर्य  ढलने  लगा , पर थका  मैं  नहीं ,
क्योंकि बाकी बहुत काम अब तक भी है।
तुम चलो  ,मैं अभी शेष  निबटाऊँगा ,
क्योंकि बाकी बहुत शाम अब तक भी है।
  
अपना दायित्व सौपूं किसी को नहीं ,
यह तो जी का चुराना हुआ काम से।
जो मेरा धर्म है , वह निभाऊँगा मैं ,
जाना जाएगा  उसको मेरे नाम से।

तुम भरोसा रखो , मैं  थकूंगा  नहीं ,
काम जब तक न ये पूर्ण हो जायेगा।
काम पूरा  न हो  और  सोने  लगूं ,
क्या ये संभव है मन नीद ले पायेगा ?

वह शयन क्या , उनीदे रहे रात भर ,
रात भर  करवटें ले  बिताया  किये।
रात्रि थोड़ी  भले शेष रह  जायेगी ,
किन्तु उतनी बहुत होगी मेरे लिए।

मानता मार्ग लंबा है फिर भी मुझे ,
लक्ष्य की प्राप्ति तक इसपे चलना ही है।
भर न जाए नदी , धार में गति न हो ,
तब तलक हिम सदृश मुझको गलना ही है।

                           - एस .एन .शुक्ल 

Wednesday, January 9, 2013

(175) कभी रास्ता नहीं मिलता

               कभी रस्ता नहीं मिलता

 

जमीं  महगी , दुकाँ   महगी , दवा महगी, दुआ महगी ,
फ़कत इनसान के, कुछ भी यहाँ सस्ता नहीं मिलता।

कभी जोरू के ताने, तो कभी बच्चों की फरमाइश ,
गिरस्ती में  वही हर रोज जैसी  जोर आजमाइश ,

गरीबों की किसी बस्ती में, जब भी झाँक कर देखो ,
किसी घर में बशर कोई, कहीं हँसता नहीं मिलता।

सड़क पर , चौक - चौबारों, मदरसों, अस्पतालों  में,
मस्जिद-ओ-चर्च, गुरुद्वारों में, मंदिर में, शिवालों में,

जिधर देखो, वहीं बस भीड़ ख्वाहिशमन्द सी लेकिन,
कहीं  इनसान से इनसान का,  रिश्ता नहीं मिलता।

ये सारी  ज़िंदगी  की  दौड़ का , हासिल यही अक्सर ,
कभी मंजिल नहीं मिलती , कभी रस्ता नहीं मिलता।

                        -एस .एन .शुक्ल 
ब्लॉग लिंक :snshukla.blogspot.com

Saturday, December 29, 2012

(174) झूठ बोलो

                   

         "झूठ बोलो"

                                  

सच ! सियासत क्या,अदालत में भी अब मजबूर है,
झूठ  बोलो,  झूठ  की  कीमत  बहुत  है  आजकल।

जो  शराफत  ढो  रहे  हैं , हर  तरह  से  तंग  हैं ,
बदगुमानों की कदर, इज्जत बहुत है आजकल।

छोड़िये ईमानदारी , छोड़िये रहम-ओ-करम,
लूट कर भरते रहो घर, मुल्क में ये ही धरम ,

हर तरफ  बदकार,  दंगाई ,  फसादी,  राहजन ,
इनपे ही सरकार की रहमत बहुत है आजकल। 

जुल्म, बेकारी,गरीबी, मुफलिसी के देश में,
हैं लुटेरों  की जमातें , साधुओं  के वेश  में ,

हर  हुकूमत  की बड़ी कुर्सी पे,  एक मक्कार है,
सिर झुकाओ, इनकी ही कीमत बहुत है आजकल।

                                                -एस .एन .शुक्ल 

Friday, December 7, 2012

(173) कौन करता है इबादत ?

कौन करता है इबादत , सब तिजारत कर रहे ,
ख्वाहिशें पसरी  हुई  हैं ,  हर  इबादतगाह  में।

भीड़ से ज्यादा  कहीं अब , मन्नतों  की  भीड़ है,
चर्च, गुरुद्वारों, शिवालों, मस्जिद-ओ-दरगाह में।

कितनी खुदगर्जी , कि सौदेबाजी भी भगवान से,
भीख   देते  , रहमतें  हैं   देखते   अल्लाह   में।

मजहबों   के   रहनुमा ,   धर्मोपदेशक ,  पादरी ,
सबके सब बगुला भगत, दौलत है सबकी चाह में।

धर्म भी धंधा हुआ , सब कुछ बिकाऊ है यहाँ ,
चलना मुश्किल हो रहा, पगडंडियों की राह में।

बेअकल ,  बेभाव  बिकते  रोज  इस   बाज़ार  में ,
फिर भी कितनी भीड़, हर दूकां पे ख्वाहम-ख्वाह में।

                                  - एस .एन .शुक्ल 

Sunday, December 2, 2012

(172) मुक्तक

                                                 मुक्तक
                                               (1)

 हवस  इनसान को  अंधा बना देती है ,  ये सच है।
 हवस  किरदार  को गंदा बना  देती है ,  ये सच है।
हवस  में आदमी , फिर आदमी रह ही कहाँ जाता ,
हवस , इज्जत को भी  धंधा बना देती है , ये सच है।
                                        (2)
अँधेरे हर  कदम  के   सामने ,  हर  ओर  खतरा  है।
समंदर है  ये  दुनिया  और  बस  इनसान कतरा  है।
वो किश्मत हो , कि दौलत हो कि इज्जत हो कि शोहरत हो,
बलंदी पर  बशर जब  भी पहुंचता  है , तो खतरा है।
                                 (3)
जवानी में , जमाने  की  किसे परवाह होती है।
वहाँ बस आग होती है, वहाँ बस आह होती  है।
बहुत कम लोग बच पाते हैं, इस तूफाँ के मंज़र से,
बहुत मुश्किल जवानी की, ये जालिम राह होती है।

                                   - एस . एन . शुक्ल 

Thursday, October 18, 2012

(171) कुछ शेर

                                     खुदा 

ज़न्नत  है  आसमान में , ये तो  पता नहीं ,
दोजख जमीन पर है , इसका इल्म है हमें।

जो आसमान पे है उस खुदा का खौफ क्या ,
खुद को खुदा समझने वाले आदमी से डर।

हमको लगता है, खुदा बन्दों से खुद खाता है खौफ ,
इसलिए  चाहे  जो हो , वह  सामने  आता  नहीं।

कौन  कहता  है  , खुदा   आदमी   ईजाद  है,
आदमी खुद ही खुदा बनाने लगा है आजकल। 

कौन करता है इबादत, सब तिजारत कर रहे ,
हर  इबादतगाह  में , हैं  ख्वाहिशें पसरी  हुई।

मन्नतों को जो इबादत का नाम देते हैं ,
वो सौदेबाज हैं , झूठी है इबादत उनकी।

           -एस .एन .शुक्ल