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Editor "LAUHSTAMBH" Published form NCR.

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Tuesday, July 31, 2012

प्रिय महोदय
                                    "श्रम साधना "स्मारिका के सफल प्रकाशन के बाद
                                                      हम ला रहे हैं .....
 स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और भारतीय संसद के छः दशकों की गति -प्रगति , उत्कर्ष -पराभव, गुण -दोष , लाभ -हानि और सुधार के उपायों पर आधारित सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण   अर्थात ...

                                               " दस्तावेज "

जिसमें स्वतन्त्रता संग्राम के वीर शहीदों की स्मृति एवं संघर्ष गाथाओं , विजय के सोल्लास और विभाजन की पीड़ा के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की यात्रा कथा , उपलब्धियों , विसंगतियों ,राजनैतिक दुरागृह , विरोधाभाष , दागियों -बागियों का राजनीति में बढ़ता वर्चस्व , अवसरवादी दांव - पेच तथा गठजोड़ के  दुष्परिणामों , व्यवस्थागत दोषों , लोकतंत्र के सजग प्रहरियों के सदप्रयासों , ज्वलंत मुद्दों तथा समस्याओं के निराकरण एवं सुधारात्मक उपायों सहित वह समस्त विषय सामग्री समाहित करने का प्रयास किया जाएगा , जिसकी कि इस प्रकार के दस्तावेज में अपेक्षा की जा सकती है /
     इस दस्तावेज में देश भर के चर्तित राजनेताओं ,ख्यातिनामा लेखकों, विद्वानों के लेख आमंत्रित किये गए है / स्मारिका का आकार ए -फोर  (11गुणे 9 इंच ) होगा तथा प्रष्टों की संख्या 600 के आस-पास  / इस अप्रतिम, अभिनव अभियान के साझीदार आप भी हो सकते हैं  / विषयानुकूल लेख, रचनाएँ भेजें तथा साथ में प्रकाशन अनुमति , अपना पूरा पता एवं चित्र भी / विषय सामग्री केवल हिन्दी , उर्दू  अंगरेजी भाषा में ही स्वीकार की जायेगी / लेख हमें हर हालत में 10 सितम्बर 2012 तक प्राप्त हो जाने चाहिए ताकि उन्हें यथोचित स्थान दिया जा सके /
                          हमारा पता -
जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड राइटर्स वेलफेयर एसोसिएशन 
 19/ 256 इंदिरा नगर , लखनऊ -226016
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Thursday, July 26, 2012

(159) राह बनाते रहिये

               राह बनाते रहिये


या ढलें वक़्त के सांचों में, हवा संग बहिये  /
या लड़ें वक़्त से  , इतिहास  रचाते  रहिये  /

या चलें देख किसी और के पैरों के निशाँ  ,
या निशाँ वक़्त के , सीने पे बनाते रहिये  /

या जियें खुद के लिए , खुद की परस्ती के लिए ,
या  जियें  सबके  लिए  ,  प्यार  लुटाते  रहिये  /

या रहें तन के खड़े , खुश्क पहाड़ों की तरह  ,
या बहें बर्फ सा गल ,  प्यास बुझाते रहिये  /


हर कोई  तुमको  सराहे , ये  ज़रूरी  तो  नहीं  ,
सबकी सुनिए भी , मगर अपनी चलाते रहिये /

फैसला सोच-समझकर लें , न पछताना फिर ,
जियें गुमनाम ,  या कि  नाम कमाते रहिये  /

                             
या रहें रोते मुकद्दर को , हाथ रख सिर पे  ,
या चलें  राह  नयी ,  राह  बनाते  रहिये  /
     
                            - एस . एन . शुक्ल

Sunday, July 22, 2012

(158) ज़रूरी तो नहीं

              

पकड़ के बाहँ चलूँ मैं , ये ज़रूरी  तो नहीं  /
पुरानी  राह चलूँ  मैं ,  ये ज़रूरी  तो नहीं  /

तुम्हें जो ठीक लगे , शौक से करते रहिये ,
वही गुनाह करूँ  मैं , ये ज़रूरी  तो नहीं  /

जो गुनहगार हैं , उनको सज़ा मिले तो मिले ,
बे-वजह आह  भरूँ  मैं , ये  ज़रूरी  तो नहीं  /

बहुत से लोग , सिर झुका के चल रहे हैं यहाँ ,
उनका हमराह बनूँ  मैं , ये  ज़रूरी तो नहीं  /

ये है मुमकिन , कि नयी राह में हों पेच-ओ-ख़म ,
खुद को  गुमराह  कहूँ  मैं ,  ये ज़रूरी तो  नहीं  /

ज़िंदगी मेरी है  , अपनी तरह जिया हूँ  मैं  ,
सबकी परवाह  करूँ मैं , ये ज़रूरी तो नहीं  /

                              - एस .एन .शुक्ल


Friday, July 13, 2012

(157) अज़नबी से शहर


               अज़नबी से शहर

इस चकाचौंध में , मतलबी हर नज़र  /
गाँव अपने से  हैं  , अज़नबी से शहर  /

धर्म-ओ -मजहब वहां , जातियां हैं मगर ,
रिश्ते - नातों की भी , थातियाँ  हैं  मगर ,
पर शहर में किसे , कौन , कब  पूछता  ,
मरने - जीने से  भी , लोग  हैं  बेखबर   /
गाँव अपने से  हैं  , अज़नबी से शहर  /

दौड़ती  -  भागती   जिन्दगी  है  यहाँ ,
रात-ओ-दिन जागती जिन्दगी है यहाँ ,
काम है ,  दाम है ,  काम ही काम है  ,
काम में मुब्तिला शख्स आठों पहर  /
गाँव अपने से  हैं  , अज़नबी से शहर  /

ये शहर क्या है , बस  एक  बाज़ार है ,
रिश्ते- नातों में भी दिखता व्यापार है ,
कौन, कब, कैसे , किसकी गिरह काट ले ,
हर कोई खोजता है यहाँ  माल-ओ- जर  /
गाँव अपने से  हैं  , अज़नबी से शहर  /

कितने सम्पन्न , साधन भरे हों नगर ,
आश्रिता आज भी उनकी है गावों पर ,
गाँव   संसाधनों  से  परे  ही  सही ,
किन्तु फिर भी हैं वे अन्नदाता के घर /
गाँव अपने से  हैं  , अज़नबी से शहर  /

                            - एस . एन . शुक्ल 

(156) हमें रोना नहीं आता

  वो बेशक हैं मुसलमां , सिख हैं , हिन्दू हैं , ईसाई हैं ,
 मगर हमको सिवा इन्सां के , कुछ होना नहीं आता /

 वो मालिक एकड़ों  के हैं ,  हमारी क्यारियाँ छोटी ,
 वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता  /

वो चलती आँधियों को देखकर , मुह फेर लेते हैं ,
हमें गर तल्ख़  हो माहौल , तो सोना नहीं आता /

जिधर देखो वही काबिज, वही मालिक, वही हाकिम ,
हमारी  किश्मतों में , एक भी कोना नहीं आता /

तवंगर हैं , जमाने भर में उनकी खूब चलती है ,
हमें उन सा कोई जादू , कोई टोना नहीं आता /

हमारे और उनके बीच में बस फर्क इतना है ,
उन्हें हंसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता /

   
wow factor...bahut khoob shukl ji... keep writing.. on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/13/12
आभार,बहुत सार्थक व मन को छूने वाली गजल के लिए............ on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/11/12
हरेक पंक्तियाँ लाजवाब ..... सुंदर अभिव्यक्ति !! on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/11/12
बहुत खूब : निशब्द कर दिया आपके एहसासों ने .. वो मालिक एकड़ों के हैं , हमारी क्यारियाँ छोटी , वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता|| शुभकामनाएँ! on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/11/12
वो मालिक एकड़ों के हैं , हमारी क्यारियाँ छोटी वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता ..बहुत गहन अभिव्यक्ति..सुन्दर गज़ल..आभार on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/11/12
वो चलती आँधियों को देखकर , मुंह फेर लेते हैं हमें गर तल्ख़ हो माहौल तो , सोना नहीं आता . बहुत खूब। और आखिरी दो पँक्तियाँ तो और भी कमाल हैं। on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/11/12
वो चलती आँधियों को देखकर , मुंह फेर लेते हैं हमें गर तल्ख़ हो माहौल तो , सोना नहीं आता . सभी लाइन खुबसूरत हैं बस इस लाइन ने मन मोह लिया .. on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/10/12
on 7/10/12
बहुत सुन्दर...अगर आज भी हम अपनी इन खासियतों को बनाकर रख सकें ...तो इस बात पर केवल फक्र करना ही आता है ..... on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/10/12
वो मालिक एकड़ों के हैं , हमारी क्यारियाँ छोटी वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता Waah...Behtreen Panktiyan.... on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति. मेरे ब्लॉग पर आपके आने का आभार,शुक्ल जी. on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
बहुत सुंदर शुक्ला जी । मेरे नए पोस्ट आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद। on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
हमारे और उनके बीच में , बस फर्क इतना है , उन्हें हँसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता इससे अच्छी और कोई दूसरी बात हो सकती है .... on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
हमारे और उनके बीच में , बस फर्क इतना है , उन्हें हँसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता बेहतरीन प्रस्तुति ,,,,, RECENT POST...: दोहे,,,, / on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
वो बेशक हैं मुसलमां , सिख हैं , हिन्दू हैं , ईसाई हैं , मगर हमको सिवा इन्सां के , कुछ होना नहीं आता वा...वाह...... वो मालिक एकड़ों के हैं , हमारी क्यारियाँ छोटी , वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता बहुत खूब ......वाह ....!! वो चलती आँधियों को देखकर , मुह फेर लेते हैं , हमें गर तल्ख़ हो माहौल , तो सोना नहीं आता क्या बात है ...... जिधर देखो , वही काबिज, वही मालिक , वही हाकिम , हमारी किश्मतों में , एक भी कोना नहीं आता क्या बात है शुक्ल जी सभी शे'र एक से बढ़ कर एक ..... - on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
बहुत लाजबाब सुंदर गजल ,,,,,,,,आभार RECENT POST...: दोहे,,,, on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
हमारे और उनके बीच में , बस फर्क इतना है , उन्हें हँसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता...... बहुत सुंदर बेहतरीन गजल ....... RECENT POST...: दोहे,,,, on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
भाई शुक्ल जी एक से एक बेहतरीन शे’र से बनी इस रचना ने मन मोह लिया। खास कर दो शे’र को फिर से याद करना चाहूंगा - वो मालिक एकड़ों के हैं , हमारी क्यारियाँ छोटी वजह ये है , कि हमको नफरतें बोना नहीं आता हमारे और उनके बीच में , बस फर्क इतना है , उन्हें हँसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
हमारे और उनके बीच में , बस फर्क इतना है , उन्हें हँसना नहीं आता , हमें रोना नहीं आता और यही फर्क सारी बात कह देता है..बहुत सुंदर ! on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
बड़ी गहरी गजलें.. on (156) हमें रोना नहीं आता
on 7/9/12
बहुत बढ़िया गज़ल शुक्ला जी.... बड़े दिनों बाद पढ़ने मिली आपकी रचना.... सादर अनु on (156) हमें रोना नहीं आता
   
                  -  एस .एन .शुक्ल