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Friday, February 24, 2012

(140) हे भरत, भारत उठो !

तुम भागीरथ हो जो लाये,  देव सरिता को धरा पर ,
भीष्म ! गंगा पुत्र हो तुम , मृत्यु भी जिसके रही कर ,
तुम वही, जिसने जलधि को अंजुली में भर पीया था ,
और तुम हनुमंत हो , भयभीत जिससे था दिवाकर /

तुम भरत हो , सिंह के जबड़ों में गिनते दाँत हो तुम ,
शेष के अवतार,  हे सौमित्र  !  रघुपति भ्रात हो तुम , 
कृष्ण हो तुम,  तर्जनी पर तुम उठा लेते हो गिरिवर ,
शिवि हो तुम , पर प्राण रक्षा , दान करते गात हो तुम /

तुम हो प्रलयंकर , विनाशक सृष्टि रखते दृष्टि हो तुम ,
तुम हो विश्वामित्र , रच सकते नयी फिर सृष्टि हो तुम,
तुम हलाहल पान कर सकते हो ,  सारे विश्व भर का ,
और कर सकते अमिय की, सृष्टि हित में वृष्टि हो तुम /

तुम हो पाणिनि , विश्व गणना के दिए सिद्धांत तुमने ,
और जग को ,  उच्च  आदर्शक  दिए  दृष्टांत  तुमने ,
तुम महात्मा बुद्ध हो , चाणक्य हो , चार्वाक हो तुम ,
नीति क्या, अनरीति समझाया ये आद्योपांत तुमने /

मार्गदर्शक विश्व के तुम थे, विभव- वैभव को जानो ,
क्यों विवश से हो खड़े ,  फिर शब्दवेधी  तीर तानो ,
हे जगद्गुरु ! विश्व  को  नेतृत्व  तेरा  चाहिए  फिर ,
हे भरत , भारत उठो , सामर्थ्य अपनी शक्ति जानो /
                                       - एस.एन शुक्ल

Sunday, February 19, 2012

{139} रुबाइयाँ

                                             (१)
                     खुद अपने आप से कैंची  को कतरते देखा ,
                     आग को बहते हुए ,  आब को जमते  देखा ,
                      अक्ल की बातें जो समझाते रहे दुनिया को ,
                      गैरत- ए- गार में  उनको भी उतरते  देखा /

                                            (२)
                      हमने  काँटों  को सरे आम  सिसकते  देखा ,
                      संग- ए- दिल छोड़िये पत्थर को पिघलते देखा,
                      वो जो दुनिया को हँसाते थे अपनी बातों से ,
                      उनको तनहाइयों में छुप के सुबकते देखा /

                                            (३)
                     खुदा  की  राह  , गुनाहों को  उभरते  देखा ,
                     रंग गिरगिट सा, आदमी को बदलते देखा ,
                      लोग कहते हैं कि अल्लाह से डरिए लेकिन ,
                      मैंने  इन्सान को, इन्सान से डरते देखा /

                                            (४)
                    बुतों को पुजते , आदमी को तड़पते देखा ,
                    गुनाह फलते , बेगुनाह  को फँसते  देखा ,
                    अज़ीब हाल है , इन्सान की इस दुनिया का ,
                     बादलों को भी  , समंदर  में बरसते देखा /

                                         (५)
                   ज़लाल-ओ-जलवा , हर किसी का उतरते देखा,
                    सरे-कोहसार  को  भी ,  टूट  के  गिरते देखा ,
                   ज़मीन पर हैं जो, उनकी भला बिसात कहाँ,
                    मैंने हर शाम, आफ़ताब  को ढलते  देखा /
              
                                              - एस. एन. शुक्ल


                             

Wednesday, February 15, 2012

(138) इन्सान कहाँ है ?

हिन्दू , ईसाई , सिख है , मुसलमान  यहाँ  है,
मैं  खोजता   रहा  हूँ  कि   इन्सान  कहाँ  है ?

मज़हब हैं , जातियाँ हैं, जातियों में जातियाँ,
इन जातियों में  आपकी  पहचान  कहाँ है ?

मंदिर  में वो कुछ और है , मस्जिद में कोई और ,
गुरुद्वारे ,  चर्च  और  है  ,  भगवान  कहाँ  है ?

पत्थर  तो  पुज  रहे हैं , आदमी  तड़प  रहा ,
इन्सान की इस कौम  का  ईमान  कहाँ  है ?

लीडर  बहुत  हैं , और बहुत  से  सियासी  दल,
हर चूल्हा अलग हांडी अलग किश्म के चावल,

बाजीगरों का खेल , सबकी अपनी डुगडुगी ,
इस डुगडुगी  में  एकता  की  तान  कहाँ है ?

सूबे के नाम पर, कहीं मज़हब के नाम पर ,
रुतबे,  रसूख  और  सियासत के नाम पर ,

नफ़रत की क्यारियाँ हैं , क्यारियों में नफरतें ,
वो देश पे  मिटने की ,  आन- बान कहाँ  है ?
                                - एस.एन . शुक्ल

Wednesday, February 8, 2012

(137) मुक्तक
















                      (137)   मुक्तक 
मुल्क  यह सेकुलर है तो फिर हदबरारी किसलिए ,
जातियों   की   खेमेबंदी  ,   तरफदारी   किसलिए , 
हर सियासतबाज़  की ख्वाहिश बने हुक्काम खुद ,
वरना  ये  फिरकापरस्ती ,  सेंधमारी   किसलिए ? 
                   - २-
अब सियासत, महज़ वोटों की तिजारत हो गई ,
और इलेक्शन , पाँच सालाना जियारत हो गई ,
बाप का बेटा का बेटा , याकि बेटी और दामाद ,
सारी पब्लिक , चंद कुनबों की विरासत हो गई /
                   -३-
गज़नबी,  गौरी , सिकंदर  ने तुझे  लूटा कभी ,
और फिर तैमूर , मुगलों का  कहर टूटा कभी ,
फ्रेंच , डच , अंग्रेज , अब देशी दरिंदों का कहर ,
देश !  तेरे सब्र  का  पर  बाँध क्या टूटा कभी ?
                 -४-
या खुदा , भगवान, मौला ,   गाड या  परवरदिगार ,
देवियों, देवों, फरिश्तों , पीर-ओ-मुर्शिद -ए-मज़ार ,
हे महापुरुषों  की  आत्माओं  , कहाँ  सोयी हो तुम ,
क्यों नहीं तुम तक पहुँचती , दीन- दुखियों की पुकार ?
                 -5-
पाप  का साम्राज्य   बढ़ता  जा रहा हर ओर है  ,
रो  रही   ईमानदारी  , मौज  में  हर  चोर  है ,
झूठे, मक्कारों , दरिंदों  के लिए दौलत के ढेर ,
और सुविधाओं भरा , हर भ्रष्ट - रिश्वतखोर है / 
                                - एस.एन .शुक्ल

Friday, February 3, 2012

(१३६) इलाज भी जूता है /

        (१३६) इलाज भी जूता है /









सब  कहते  भ्रष्टाचार  बहुत , यह  लोकतंत्र  बीमार  बहुत ,
सब कहते समय खराब ,और सब कहते अत्याचार बहुत /
औरों की  देखादेखी  जब ,  क्षमता  से कई  गुना चाहत ,
तो फिर कैसे मिल पायेगी ,इस भ्रष्ट व्यवस्था से राहत ?
सब चाह रहे फिर भगत सिंह , सब चाह रहे फिर हों सुभाष ,
सब  चाह  रहे  आज़ाद  और  बाघा  जतीन  हों  आस-पास /
वे  पैदा  हों, संघर्ष  करें , पर  केवल  औरों  के  घर  हों  ,
अम्बानी, टाटा , डालमिया , बिड़ला हों  तो  मेरे घर हों /
बस यही चाह , इस लोकतंत्र की सफल राह का काँटा है,
सोचो! खुद को  तुमने  ही तो , सांचों - खेमों में बांटा है /
मीठा हप- हप , कड़वा थू- थू , उपदेशों की बांचें पोथी ,
बाहर उजले, अन्दर मैले , यह कैसी राजनीति थोथी ?
जब हो चुनाव तो , जाति - धर्म की करते हो पैरोकारी ,
खुद जान - बूझकर पैदा की, अब कहते इसको बीमारी /
बोलो  संसद  में  किसने  भेजे, चोर ,  लुटेरे ,  जमाखोर ,
जब बार- बार गलती अपनी , तो मचा रहे क्यों व्यर्थ शोर ?
यह भ्रष्टाचार एक दिन में ,  नाले  से सागर  नहीं  बना ,
यह अनाचार - रिश्वतखोरी भी अनायास तो नहीं तना /
यह देन तुम्हारी खुद  की है , तुमने ही  इसको  पोषा है ,
लेकिन जब खुद को दर्द हुआ , तो खुद तुमने ही कोसा है /
मैं भी अन्ना - मैं भी अन्ना , सड़कों पर चिल्लाने वालों, 
झूठे  सपनों,  थोथे  नारों से ,  मन  को  बहलाने  वालों /
तुम में से ऐसे कितने हैं , जो खुद हैं पाक- साफ़  बोलो,
जब खुद का ही दामन मैला, तो पहले तोलो फिर बोलो /
पहले अपना मन साफ़ करो, अपनी गलती भी स्वीकारो ,
फिर गलत दिखे चाहे कोई , गिनकर सौ- सौ जूते मारो  /
जैसे व्यभिचारी , चोर  और  मिर्गी  की औषधि जूता है ,
बस उसी तरह इस भ्रष्ट व्यवस्था का इलाज भी जूता है /
                                        - एस.एन.शुक्ल