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Wednesday, May 25, 2011

(23) वीरवर कर्ण

रण वीरगती को प्राप्त कर चुके, थे अब तक योद्धा अनंत
भट भीष्म पितामह,  गुरु द्रोण, दोनों का था हो चुका अंत
कुरु सैन्य नियंत्रण और युद्ध, उसके निर्देशों पर निर्भर
सेनापतित्व का भार आज, था कर्ण वीर के कन्धों पर
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पैदल से पैदल, गज से  गज, थे भिड़े हुए योद्धा समान  
अश्वारोही सैनिकों   मध्य भी, मचा हुआ था घमासान
रथी, महारथी योद्धा स्यंदन पर , चढ़कर  थे कर रहे युद्ध
नभ से सुरगण इस अप्रतिम रण को देख   रहे थे मंत्रमुग्ध
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अर्जुन-राधेय सुभट दोनों, थे एक दुसरे के समक्ष
आयुध-आयुध टकराते थे, पर निबल न था एक भी पक्ष
रक्ताभ नेत्र चपला सी गति, दोनों की भृकुटी तनी हुई 
शरवृष्टि अनवरत थी ऐसी, मानों नभ बदली घनी हुई
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थे व्यर्थ हो रहे दिन भर से , दोनों पर दोनों के प्रहार
पर नहीं निकलता दीख रहा था, उनके रण का कोई सार
गिर रहे धरा थे टूट-टूट, दोनों के आयुध टकरा कर 
दोनों थे पीड़ित रोम-रोम, पर नहीं प्रदर्शन था मुख पर
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रण मध्य किन्तु फिर भी दोनों , थे नहीं शस्त्र रखने वाले
क्रोधित वनराज सदृश दोनों, भट जूझ रहे थे मतवाले
अवसान दिवस का था समीप, दिनकर आभा थी मलिन श्रांत
लड़ते लड़ते रण मध्य इधर, कौन्तेय-कर्ण थे श्रमित क्लांत
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क्रोधित रविसुत ने तरकश से, चाहा निकालना तभी  तीर 
फुंकार उठा विषधर भुजंग, जो उसमें बैठा था अधीर 
आश्चर्यचकित रह गया कर्ण, सोचा मन-यह कैसी माया
मेरे तूणीर मध्य कैसे, यह विषधर तक्षक घुस आया?
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बोला सक्रोध मेरे तरकश में, बैठा क्या कर रहा दुष्ट
व्यवधान बन रहा है रण में, क्यों मुझे और कर रहा रुष्ट,
मैं जान रहा तू शत्रु दूत, चाहता मुझे तू डस लेना
पर कीट पतंगों का वध कर,चाहता न मैं अपयश लेना
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बोला तक्षक हे अंगराज मैं शत्रु नहीं हितकामी हूँ
इस समर भूमि में आया बस बन कर तेरा अनुगामी हूँ
हे वीर शत्रु जो तेरा है, वह ही वैरी मेरा भी है
जो लक्ष्य जन्म से मेरा है वह लक्ष्य आज तेरा भी है
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जग के भुजंगों का स्वामी हूँ मैं अश्वसेन कहलाता हूँ
अर्जुन का शत्रु जन्म से हूँ, पर पहुँच न उस तक पाता हूँ
बस तेरे ही शर हैं समर्थ, उसके श्यन्दन तक जाने में
हो सकते तुम्हीं सहायक हो,मुझको उस तक पहुचाने में
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निज शर पर कर आरूढ़ वीर, बस उस तक जाने दे मुझको
अर्जुन को अंतिम निद्रा में अविलम्ब सुलाने दे मुझको
जीवन भर का संचित निज विष, जब उस पर वमन करूँगा मैं
फिर विजय तुम्हारी निश्चित है, क्षण में ही प्राण हरूँगा मैं
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बोला राधेय अरे विषधर, तू समझ न मुझको पाया है
है सर्प जन्म से मनुज शत्रु, नर मित्र कभी कहाया है
फिर कैसे तुने सोच लिया यह, तेरा मित्र बनूंगा मैं
अर्जुन से भट से विजय हेतु, तेरी सहायता लूँगा मैं ?
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संघर्ष, शत्रुता नहीं सदा, यह मात्र इसी जीवन भर है 
जय और पराजय, लाभ-हानि , सब कुछ विधना पर निर्भर है 
अर्जुन है मेरा शत्रु किन्तु नर है वह कोई नाग नहीं 
पर मैं उससे जय पाने में, दे सकता तुझको भाग नहीं 
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हे अश्वसेन अपने मन  से तज दे ऐसा कुत्सित विचार
करने दे सकता कभी सिंह, क्या औरों को अपना शिकार?
तेरी सहायता से निश्चित जय पाउँगा है मुझे भान
पर ऐसी जय पा शेष रहेगा कर्ण वीर का कहाँ मान
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जा चला मनुज के दुष्ट शत्रु, सहयोग न मुझसे पायेगा
जीते जी ऐसा घृणित कर्म राधेय नहीं कर पायेगा  

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह प्रसंग तो नितांत नया है मेरे लिए ... बहुत अच्छी रचना ..

S.N SHUKLA said...

Maidam

prasan naya nahin hai. Pandvon dwara khandav van men aag lagaye jane par vahan rahne vale naag parivar ka vinash ho gaya tha. keval ashvsen jeevit bacha tha aur usne ARJUN se apne parivar ke vinash ka badla lena ki pratigya ki thi. Yah prasan MAHABHARAT men hai.

Rachna achhi lagi, dhnyvad.

prerna argal said...

mahabharat ka aek bahut achcha prasng per saarthak rachanaa badhaai aapko.



please visit my blog and feel free to comment.thanks.

S.N SHUKLA said...

prema ji
apko rachna pasand ayi.utsahvardhan ke liye dhanyavad.

shikha varshney said...

ये कथा तो कभी सुनी न थी.
संगीता जी कि चर्चा से यहाँ तक पहुंची हूँ.
बहुत बहुत पसंद आई रचना .

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