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Thursday, October 18, 2012

(171) कुछ शेर

                                     खुदा 

ज़न्नत  है  आसमान में , ये तो  पता नहीं ,
दोजख जमीन पर है , इसका इल्म है हमें।

जो आसमान पे है उस खुदा का खौफ क्या ,
खुद को खुदा समझने वाले आदमी से डर।

हमको लगता है, खुदा बन्दों से खुद खाता है खौफ ,
इसलिए  चाहे  जो हो , वह  सामने  आता  नहीं।

कौन  कहता  है  , खुदा   आदमी   ईजाद  है,
आदमी खुद ही खुदा बनाने लगा है आजकल। 

कौन करता है इबादत, सब तिजारत कर रहे ,
हर  इबादतगाह  में , हैं  ख्वाहिशें पसरी  हुई।

मन्नतों को जो इबादत का नाम देते हैं ,
वो सौदेबाज हैं , झूठी है इबादत उनकी।

           -एस .एन .शुक्ल 

Wednesday, October 10, 2012




















(170) वह दिया हूँ , कभी जो जला ही नहीं।

तेल  बाती  से  परिपूर्ण  हूँ , मुग्ध  हूँ ,
प्रज्ज्वलन की मिली पर कला ही नहीं।
वे  दमकते  रहे ,  मैं  तमस  से  घिरा ,
वह  दिया  हूँ ,  कभी जो जला ही नहीं।

सैकड़ों सांझ ले आस जीता रहा ,
कोई स्पर्श दे , थपथपाये मुझे ,
मेरी बाती को भी, कोई निज ज्योति से ,
जोड़ , स्पन्दित कर जगाये मुझे ,
पर वो हतभाग्य हूँ मैं, कि जिसका कभी ,
कोई जादू किसी पर चला ही नहीं।
वे  दमकते  रहे ,  मैं  तमस  से  घिरा ,
वह  दिया  हूँ ,  कभी जो जला ही नहीं।

मैं छुआ जब गया , तो ललकने लगा,
नेह नैनों से बाहर छलकने लगा।
मैं भी मानिन्द उनकी प्रभा दूंगा अब ,
सोच मन , बालमन सा किलकने लगा।
पर वही ढाक के पात बस तीन से ,
वह विटप हूँ , कभी जो फला ही नहीं।
 वे  दमकते  रहे ,  मैं  तमस  से  घिरा ,
वह  दिया  हूँ ,  कभी जो जला ही नहीं।

दर्द इसका नहीं, मैं जला क्यों नहीं,
दर्द यह है , तमस से लड़ा क्यों नहीं,
जब अँधेरे रहे फ़ैल थे हर तरफ ,
तो उन्हें रोकने , मैं बढ़ा क्यों नहीं।
हिम सदृश शांत , विभ्रांत प्रश्तर बना,
उस तपन में भी किंचित गला क्यों नहीं।
 वे  दमकते  रहे ,  मैं  तमस  से  घिरा ,
वह  दिया  हूँ ,  कभी जो जला ही नहीं।
                           - एस .एन .शुक्ल