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Editor "LAUHSTAMBH" Published form NCR.

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Wednesday, June 29, 2011

(73) वह सकुचाती, शर्माती सी

वह सकुचाती, शर्माती सी , नाजों के बीच पली जैसी ,
मानो बगिया के बीच खिली हो , कोमल कुसुम कली जैसी /

वह श्वेत धवल परिधान युक्त , थी भीड़ मध्य भी अलग- थलग ,
हम अपलक उसमें खोये से , वह मूरत मोम ढली जैसी  /

वह स्मित, मृदु स्वर में बातें, अधराधर का उठना- गिरना ,
पुष्पों से ज्यों, मधु रस वर्षा ,  मिश्री की लगे डली जैसी   /

वह विधना की अनुपम कृति सी , वह देवलोक की देवि सदृश ,
साकार कल्पना की छवि सी ,  भोली  सी  और  भली  जैसी /

शारदा, भवानी, लक्ष्मी ज्यों, आयी हो धरकर बाल रूप  ,
वह तेजस, वह लावण्य , लगे जैसे वृषभानु लली  जैसी  / 

Tuesday, June 28, 2011

(72) [ पुराना सब बदल डालो ]

इमारत जब नयी तामीर करनी हो तो अक्सर ही ,
पुरानी कुछ दबी यादें , उभरकर आ ही जाती हैं  /
अगर खुद का बनाया आशियाँ , खुद तोड़ना हो तो ,
वो यादें आँख में , शबनम कभी छलका ही जाती हैं /

मगर जब फिर उसी दर पर, बनाना हो नया घर तो ,
पुराना घर, दर- ओ- दीवार सब कुछ तोड़ना होगा  /
ये माना पीढ़ियाँ - दर- पीढ़ियाँ गुज़री हैं इस घर में ,
मगर उस भावना, उस मोह को अब छोड़ना होगा /

वही सिद्धांत, फिर से मुल्क की तामीर की खातिर ,
ज़रा सा संगदिल होकर, ज़रा सा सख्त हो अपना /
नया कुछ भी बनाने में , बहानों की नहीं चलती ,
हकीकत में नहीं बदलेगा , नवनिर्माण का सपना  /

है जिस रस्ते पे इस दम मुल्क , वह मंजिल से भटका है ,
वहां  रोड़े,  अँधेरे  हैं,  बहुत  शातिर     लुटेरे    हैं   / 
फिर उस मंजिल का क्या मतलब, जहां मकसद न हो हासिल ,
जहां इन्साफ मुश्किल हो ,जहां बस गोल घेरे हैं  /

पुरानी रूढ़ियाँ  या घर, बदलना ही उन्हें बेहतर ,
जो करना है, वो करिए आज , कल- परसों पे मत टालो /
निकल आओ अंधेरों से , अँधेरे दर्द देते हैं ,
नया फिर से बनाओ घर, पुराना सब बदल डालो  /  


Monday, June 27, 2011

(71) कैसे चुप रहूँ मैं ?

नहीं फितरत, धधकता आग के जैसा रहूँ मैं ,
नहीं आदत,कि शोलों सा भड़कता ही रहूँ मैं ,
मगर जब अन्नदाता स्वयं भूखा मर रहा हो ,
जवाँ इस देश का , खुद आप से ही लड़ रहा हो ,
सिसकती बेटियों के जिस्म नोचे जा रहे हों ,
वतन को बेच , रखवाले वतन के खा रहे हों ,
हो अंधा देश का क़ानून , तो कैसे सहूँ मैं ?
ये सब कुछ देख, आँखें फेर कैसे चुप रहूँ मैं ?

उठायी थी कलम यह सोच कर, सत्पथ चलूँगा ,
अँधेरे रास्तों को दीप बन रोशन करूंगा  /
थीं तब भी अड़चनें सन्मार्ग पर, इतनी नहीं थीं,
अँधेरे बढ़ रहे थे, पर कंदीलें जल रही थीं ,
वो था वह दौर जब इन्सानियत कुछ-कुछ मरी थी ,
चमन में रोग था , पर पत्तियाँ तब तक हरी थीं /
थे जो भी बागवाँ, वे स्वार्थ में अंधे नहीं थे ,
जमीं के लोग थे वे ,इस तरह नंगे नहीं थे /

मगर इस दौर सारे मुल्क में उल्टी हवा है,
हर एक डाली पे उल्लू है, बताओ क्या दवा है ?
चमन में फूल, पत्ती, फल नहीं, गुब्बार है अब ,
शज़र को क्या कहें, मिट्टी तलक बीमार है अब /
जरूरत है दवाई की चमन को,खाद- पानी की ,
सफाई की, निराई की, हिफाज़त, निगहबानी की /
हवा कुछ कह रही है,सुन तो लो सरगोशियाँ उसकी,
वो शायद पूछती है,अब हिफाज़त कैसे हो इसकी ?
     
   

Saturday, June 25, 2011

(70) { तुम्हें ही भेदना है }

पल रहा अन्याय उर में , तो उसे अभिव्यक्ति भी दो ,
गाँठ मन की खोल दो, अंतःकरण की शक्ति भी दो /
देश यह पालक पिता है और धरती माँ सभी की ,
इसलिए इसको समर्पण भाव दो,अनुरक्ति भी दो /

मानता हूँ कुछ जबानों पर यहाँ ताले जड़े हैं ,
घाव भी हैं और पावों में बहुत छाले पड़े हैं /
किन्तु क्या बस इसलिए चुपचाप सब सहते रहोगे ?
देश का इतिहास , अस्सी घाव तन, फिर भी लड़े हैं /

प्रश्न केवल यह नहीं है , आज क्या कुछ हो रहा है ,
प्रश्न यह है, विश्व में भारत विभव क्यों खो रहा है ?
देश के सम्मान का दायित्व सारे देश पर है ,
इसलिए रोको उसे, जो भी अनर्गल हो रहा है /

जी चुके अपनी,  मगर  कर्तव्य तो अवशेष ही है ,
धर्म का अगला चरण, अगली विधा यह देश ही है /
नयी पीढ़ी के लिए भी , पथ बनाना है तुम्हें ही ,
बूँद से चूके , घड़ों से पूरना फिर क्लेश ही है /

आज सारे देश में हर ओर केवल वेदना है ,
और शासक वर्ग की भी मर चुकी संवेदना है /
धूल- कूड़ा है बहुत, अब आंधियाँ फिर से उठाओ ,
व्यूह का यह द्वार अंतिम भी तुम्हें ही भेदना है /  


Friday, June 24, 2011

(69) तब क्या करोगे प्यारे?

अन्ना और रामदेव के आन्दोलनों पर
सरकार की भृकुटी तनी है/
वजह शायद यह कि-
उसके गुर्गों के पास ही सबसे अधिक ब्लैक -मनी है /
यदि बन गया जन-लोकपाल
तो उतर सकती है उनकी भी मोटी खाल /
इसलिए नए- नए तर्क गढ़े जा रहे हैं /
अन्ना और बाबा पर-
साम्प्रदायिकता तथा तानाशाही के आरोप मढ़े जा रहे हैं /
यह सरकार की नयी परिभाषा है /
अनशन करना तानाशाही है -
और लाठियाँ भांजना  ? ? ?

वे कहते हैं कि-
अन्ना और बाबा पहले चुनाव जीतकर आयें /
फिर संसद में बैठकर क़ानून बनायें /
यहाँ इस सारे देश का एक सवाल है -
क्या चुनाव जीतने वालों को ही बोलने का अधिकार है ?
यदि ऐसा  ही है -
तो संविधान निहित मूल अधिकारों की क्या दरकार है ?
एक और सवाल-
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को किस क्षेत्र की जनता ने चुना है ?
उनके हाथ में तो सारे देश का झुनझुना है /
और यह भी कि किसी निर्वाचन क्षेत्र के -
दस-पंद्रह फीशदी मत हासिल कर चुनाव जीतने वाला बड़ा है
या वह व्यक्ति -
जिसके समर्थन में सारा देश मुट्ठियाँ बांधे खड़ा है ?

थोड़ा पीछे लौटिये -
महात्मा गांधी,पटेल, सुभाष ने कौन सा चुनाव लड़ा था ?
लेकिन तब उनके पीछे सारा देश खड़ा था /
गांधीजी को सारे देश ने राष्ट्रपिता माना -
आज भी मानता है /
लेकिन शायद सत्ता से जुड़ा वह वर्ग नहीं मानता -
जो उन्हीं की दुहाई दे , उन्हीं के नाम पर रबड़ी छानता है /

हे स्वयंभू विधाताओं -
पहले जनतंत्र के मायने जानो /
जनता के मन में पल रहे असंतोष को पहचानो /
अभी एक अन्ना के आन्दोलन से हलकान हो -
लेकिन कल जब सारा देश बनेगा  अन्ना हजारे ,
बोलो तब क्या करोगे प्यारे ? ?   

Thursday, June 23, 2011

(68) सत्य हूँ ,साकार हूँ मैं

मैं सरस्वति पुत्र हूँ , करता नहीं व्यापार हूँ मैं ,
कल्पना का कवि नहीं हूँ,  सत्य हूँ ,साकार हूँ मैं /

मूक की वाणी, दलित-शोषित ह्रदय की वेदना हूँ,
लोक प्रहरी हूँ, समूचे राष्ट्र की संवेदना हूँ /
एक ही उद्देश्य - जितना हो सके, वह सच कहूं मैं,
पथ विरत या सुप्त  लोगों को, जगाता भी रहूँ मैं /
लेखनी का शस्त्र यह, परमाणु पूरित हाथ मेरे ,
न्याय का सहचर, सखा , अन्याय का प्रतिकार हूँ मैं/
कल्पना का कवि नहीं हूँ,  सत्य हूँ ,साकार हूँ मैं //१//

सिरफिरा,सनकी,विवादी, शब्द भी स्वीकार मुझको,
लोग विद्रोही कहें, तो भी है अंगीकार मुझको /
अनवरत अन्याय, फिर भी चक्षु कैसे बंद कर लूं ,
मात्र अपने स्वार्थ हित, कैसे ह्रदय पाषाण धर लूं / 
अग्नि जीवन ऊष्मा है, अग्नि तम को जारती है,
इसलिए बस घूमता , लेकर ह्रदय अंगार हूँ मैं /
कल्पना का कवि नहीं हूँ,  सत्य हूँ ,साकार हूँ मैं//२//

रहबरी चोले  में रहजन, चाल तिरछी चल रहा है ,
और सारे देश के, आक्रोश उर में पल रहा है /
कुर्सियां जिनके तले, वे पट्टियां आँखों पे बांधे,
फिर गरीबों, तंगहालों के, भला हित कौन साधे?
वे बधिर हैं , सिसकियाँ, उनको नहीं पड़तीं सुनायी,
इसलिए संधानता शर, धनुष की टंकार हूँ मैं /
 कल्पना का कवि नहीं हूँ,  सत्य हूँ ,साकार हूँ मैं//३//

Wednesday, June 22, 2011

(67) कैसे हैं दीवाने लोग ?

आज इधर, कल उधर बैठकर गढ़ते नए बहाने लोग ,
अजब सियासत खेल है, जिसमें  बदलें रोज ठिकाने लोग /

इस पाले में उनको कोसें, उस पाले से इन पर वार ,
पल- पल में ईमान बदलते, सत्ता के दीवाने लोग /

कुर्सी की खातिर इज्ज़त क्या , देश भाड़ में झोंक रहे ,
बेशर्मी की हदें लांघते ,जैसे हों बौराने लोग /

कल खाते थे कसम मिटाने की जिसको , अब उसकी ही,
गोदी में बैठे हैं गाते , फिर से नए तराने लोग /

भीड़ जुट रही उनके पीछे , जिनका कोई कयाम नहीं,
अपने पैर कुल्हाड़ी मारें , कैसे हैं दीवाने लोग /

इन कौवों, गीधों के चंगुल से , गुलशन अवमुक्त  करो ,
उनके ही ये चोंच मारते, जिनके चुगते दाने लोग /   

Monday, June 20, 2011

(66) माँ जैसा और नहीं कोई


तेरी चिंता से ग्रस्त न जाने कितनी रात नहीं सोयी /
धरती क्या तीनों लोकों में , माँ जैसा और नहीं कोई  /

नौ माह उदर  में रख पाला , पीड़ा में भी था अमित लाड़,
जन्मे तो कितने कष्ट दिए, बाहर आये माँ उदर फाड़  /
पर तेरी ममता में उसने , अपने सब कष्ट विसार दिए ,
फिर तेरे लालन-पालन में , खुद के सारे सुख वार दिए /
तेरे हँसने पर खिली और वह तेरे रोने पर रोई ,
धरती क्या तीनों लोकों में , माँ जैसा और नहीं कोई  /

वह पौष - माघ की शीत लहर ,तेरा पल-पल, मल-मूत्र त्याग,
ठंडक से तुझे बचाने में , खुद रातें काटीं जाग -जाग /
तेरे हर संकट को हंसकर , बस खुद पर लेती आयी माँ ,
तेरे लालन-पालन में हर पल , बनी रही परछाई माँ /
तुझको आँचल में छुपा रखा, खुद गीले में लेटी-सोयी ,
धरती क्या तीनों लोकों में , माँ जैसा और नहीं कोई  /

डगमग शैशव का सम्बल वह, बोलना सिखाने वाली माँ ,
बैयाँ-बैयाँ ,टयाँ -टयाँ , चलना सिखलाने वाली माँ /
निज स्तन पान करा तुझको , तुझमें जीवन संचार किया ,
अपना सब मधुमय अंतराल , तेरे पालन पर वार दिया /
तेरे समर्थ हो सकने तक , तुझमें ही सदा रही खोयी ,
धरती क्या तीनों लोकों में , माँ जैसा और नहीं कोई  /

इस दुनिया में , इस पृथ्वी पर,माँ ही सबको लाने वाली ,
इस धरती पर सबसे पहले ,पहला पग रखवाने वाली /
खुद में ही फूला घूम रहा , भूला क्यों जिसकी गोद पला ,
जो माँ को भूल गया , उससे दुनिया में कौन कृतघ्न भला?
पत्नी, सुत, भ्रात सभी रिश्तों में , उनके अपने निजी स्वार्थ ,
निःस्वार्थ प्यार माँ का , उसकी ममता का मोल नहीं कोई /
धरती क्या तीनों लोकों में , माँ जैसा और नहीं कोई  / 

Sunday, June 19, 2011

(65) वेश्या पतिता नहीं होती /

वेश्या पतिता नहीं होती, पतन को रोकती है /
पतित जन की गन्दगी , अपने ह्रदय में सोखती है/
जो विषैलापन लिए हैं घूमते नरपशु जगत में ,
उसे वातावरण में वह फैलने से रोकती है /

यही तो गंगा रही कर , पापियों के पाप धोती ,
वह सहस्रों वर्ष से , बस बह रही है कलुष ढोती,
शास्त्र कहते हैं कि गंगा मोक्षप्रद है, पावनी है ,
किसलिए फिर और कैसे वेश्या ही पतित होती ?

मानता हूँ , वेश्या निज तन गमन का मूल्य लेती ,
किन्तु सोचो कौन सा व्यापार उनका ,कौन खेती ?
और यह भी , कौन सी उनकी भला मजबूरियां हैं ,
विवश यदि होती न, तो तन बेचती क्यों दंश लेती ?

मानता यह भी कि वेश्यावृत्ति , पापाचार है यह ,
किन्तु रोटी है ये उनकी , पेट हित व्यापार है यह ,
देह सुख  लेते जो उनसे, वही उनको कोसते भी,
और फिर दुत्कार सामाजिक भी , अत्याचार है यह /

गौर से देखो , बनाते कौन उनको वेश्याएं ,
और वे हैं कौन, जो इस वृत्ति को खुद पोषते हैं ?
पतित तो वे हैं , जो रातों के अंधेरों में वहां जा -
देह सुख  भी भोगते हैं , और फिर खुद कोसते हैं /  

Thursday, June 16, 2011

(64) पापा ऐसा क्यों होता है

पापा जब तुम बूढ़े होगे ,
जब यह काया थक जायेगी .
और हमारी शादी होगी ,
जब   मेरी  पत्नी आयेगी .

क्या तब दादा-दादी जैसे,
मम्मी और तुम्हें दोनों को,
वृद्धाश्रम में जाना होगा ?.
क्या तब मुझको भी ऐसे ही,
बस तब साल-महीनों में फिर,
तुमसे मिलने आना होगा ?

क्या दादा-दादी दोनों ही ,
कभी युवा थे, तुम जैसे थे?
और कभी क्या ,जैसा इस दम 
मैं छोटा हूँ, तुम वैसे थे ?
तब क्या दादा-दादी तुम से ,
भी यूं प्यार किया करते थे .
मेरा बेटा, प्यारा बेटा,
राजदुलारा वे कहते थे.?
क्या अपनों से दूरी का दुःख ,
पापा तुम तब सह पाओगे ?
मेरे बिन तुम वहां अकेले ,
बोलो कैसे रह पाओगे ?

पापा ऐसा क्यों होता है ,
क्यों सब बूढ़े हो जाते हैं?
अपना घर, अपने बच्चों को,
छोड़ वहां वे क्यों जाते हैं?

special on "FATHER,S DAY"

Wednesday, June 15, 2011

(63) ऐसे तो नहीं थे वे

दुर्गम चढ़ाइयों पर 
पहाड़ों की गोद में 
घने जंगलों के बीच 
प्रकृति के सानिध्य में
वे प्रकृति पुरुष थे .

जंगली पशुओं का आखेट ,
उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग
और उनके भोजन की आवश्यकता थी,
किन्तु वे हिंसक नहीं थे .
उनमें भी भावनाएं थीं,संवेदनाएं थीं .
वे भी जानते थे पीड़ा और दुःख को,
उनमें भी थी मानवता और अपनों के प्रति स्नेह .

अब वे ,वे नहीं रहे .
उनके हाथों में-
बरछे, भाले, धनुष-बाण और बंदूकें हैं ,
जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए नहीं,
अपने उन दुश्मनों से लड़ने के लिए -
जो आज तक उन्हें छलते,उनका शोषण करते रहे हैं .
कानूनन हिंसा अपराध है -
लेकिन तब कहाँ था क़ानून -
जब उन्हें लगातार छला जा रहा था .

वे नहीं जानते थे लोकतंत्र का मतलब,
वे नहीं जानते थे स्वाधीनता का मूल्य 
किन्तु वे आज़ाद थे पूरी तरह अपने अभयारण्यों में 
अपने उन जंगली चौपायों के बीच .
जिन्दगी कुछ ज्यादा कठिन थी,वस्त्रहीन थे वे.
लेकिन वे -
खुद अपने शासक थे, खुद लोक थे,खुद लोकतंत्र थे.
स्वचालित वाहन, कोठी, बंगले और सुविधाओं भरा जीवन ,
उनके लिए परी कथाओं सा था .
वे मानते थे उसे दूसरी दुनिया 
लेकिन उनमें उन्हें पाने का लोभ नहीं था .

फिर वोटों के सौदागरों ने -
उन्हें सपने दिखाए .
उनके अरमान   जगाये और सपनों को दिए पंख.
जीतने के बाद उन्होंने ही उन पंखों को नोचा भी ,
बस उनके बीच के कुछ दलालों को नवाजा .
और फिर यही हुआ बार-बार .
दलालों की समृद्धि बढी -
वे सियासी रसूखदार और ओहदेदार भी बने,
लेकिन वे हर बार और हर एक से छले गए.

यही नहीं -
फिर वे उन जंगलों से भी बेदखल किये जाने लगे ,
जो उनके पालक थे, पिता  थे .
और उस जमीन से भी-
जो उनकी माँ थी .
स्वाभाविक आक्रोश में उन्होंने हथियार उठाये ,
यह प्रतिकार था , लेकिन-
सरकारी भाषा में वे नक्सली, माओवादी कहलाये .

अब वे मारते भी हैं, मारे भी जाते हैं,
लेकिन कोई नहीं जानना चाहता -
की  भोले-भाले आदिवासी किस मजबूरी में हथियार उठाते हैं.
बार-बार उठती है यह बात-
की वे ऐसे तो नहीं थे .
लेकिन कौन समझना चाहता है उनकी व्यथा .
हथियारों से हथियार परास्त किये जा सकते हैं ,
भावनाएं और आक्रोश नहीं.
और जब तक-
व्यवस्था इस बात को नहीं समझेगी ,
तब तक पैदा ही होते रहेंगे -
कानू सान्याल .

Monday, June 13, 2011

(62) हे द्रोपदियों

एक पत्नी के पांच पति ,
शायद तब -
रही होगी यह परम्परा .
किन्तु पांच पतियों की पत्नी द्रोपदी 
शरीर का सुख तो हो सकती है ,
किसी की अर्धांगिनी नहीं हो सकती .

युधिष्ठिर ,भीम,अर्जुन,नकुल, सहदेव,
सबकी सहचरी,सबकी अंकशायिनी ,
महाभारत की अति विशिष्ट पात्र .
महाविनाश की नायिका .
जिसके कारण,जिसके हठ पर,
 ज्येष्ठ-नेष्ट  , अग्रज और सहोदर -
आपस में ही लड़े -
एक-दूसरे का बहाया रक्त 
अपनों का वध कर खुश हुए .
क्योंकि उसी में प्रिया की खुशी थी .

माना की  -
दुर्योधन था अनीति के पथ पर ,
उसमें सत्ता का नशा , शक्ति का दर्प था .
किन्तु-
पांच महाबलियों की प्रिया होने के कारण ,
क्या द्रोपदी में -
अनावश्यक दर्प नहीं था.
वह कर्ण जैसे - दानी, स्वाभिमानी और महात्मा को 
सूत पुत्र कह सकती थी .
तो फिर -
कर्ण का उसके चरित्र पर -
उंगली उठाना  गलत क्यों  था .

छल से या बल से -
पांडवों ने जीती महाभारत .
इसलिए उनके सारे अपराध क्षम्य .
क्योंकि यह परम्परा है -
समरथ को नहिं  दोष गोसाईं 
.इसीलिये तो-
द्रोपदी को चिराकुमारी  कहा गया .
उसे प्रातः स्मरणीय पञ्च कन्याओं में 
दूसरा स्थान दिया गया .
आखिर पांच महाबलियों की पत्नी के -
सम्मान पर कौन उठा सकता है उंगली .

यही आज का भी सच है .
किसी द्रोपदी के चरित्र पर,
कोई उंगली नहीं उठा सकता .
और अगर उठाएगा -
तो कर्ण की तरह निहत्था मारा जाएगा .
वह भी बन सकती है साम्राज्ञी -
बशर्ते वह -
बाहुबलियों/समर्थों की अंकशायिनी हो .
इसलिए हे द्रोपदियों -
विशिष्ट बन चुकी द्रोपदियों से प्रेरणा लो .
तुम भी खोजो ऐसे पति ,
आखिर तुम्हें भी तो साम्राज्य चाहिए .

(61) कलम को बन्दूक बनने से रोको

दुनिया में कलम के कारण
बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ हुयी हैं .
इसीलिये -
कलम को सबसे बड़ा हथियार माना जाता है .
लेकिन यह हथियार उन्हीं को डराता है,
जिनका -
स्वाभिमान, सम्मान और संवेदनशीलता से नाता है.
दुश्चरित्र ,निर्लज्ज और संवेदनहीन लोगों को ,
भला कलम से कौन डरा पाता है .
और उनको भी-
जिनका बस स्वार्थ से ही नाता है .
इसीलिये हर कलमवाला -
जूतेवाला बनने पर आमादा है
यद्यपि कुछ कथित कलमकार -
जूते चाटने में ज्यादा यकीन रखते हैं .
और बदले में सत्ता की जूठन चखते हैं .

फिर भी जूता चल रहा है
और यह जिन पर चलता है
उनसे भी ज्यादा -
उनके तलवे चाटनेवालों को खल रहा है .
पता नहीं , जूता चलाने और जूता दिखाने में -
आक्रोश है या खबर बनने की चाह ,
लेकिन बार-बार खबर बनता   है जूता .
जूता दिखाने वाला पिटा -
और जूते की पिटाई कर , कुछ लोग खुश हैं ',
वे सन्देश दे रहे हैं की , अब जो जूता दिखाएगा 
उसके साथ , ऐसा ही सलूक किया जाएगा .

फिर लोग कलम को , क्यों बनायेंगे जूता 
वे कलम को बन्दूक बनायेंगे 
खुद लोगों की पकड़ की जद से -
बाहर रहकर दनदनाएंगे  .
अर्थात नक्सल और माओवाद की नयी पौध -
तब कौन लडेगा उनसे 
और तब क्या वे रोके जा पायेंगे .

इसलिए हे स्वयंभू विधाताओं ,
 अपने अन्तहकरण  में झांको -
और गंभीरता से सोचो .
भारत के सुखमय भविष्य के लिए -
कलम को बन्दूक बनने से रोको . 

Sunday, June 12, 2011

(60) किसलिए ग़मगीन हो तुम

मथ रही उलझन कोई , या कल्पना में लीन  हो तुम,
किसलिए सिर को झुकाए ,किसलिए ग़मगीन हो तुम.

देखिये उनको, जो पहुंचे शीर्ष पर लड़कर समय से,
बड़ा या छोटा कोई होता नहीं धन और वय से ,
ज्योति अपनी खुद बनो, खुद रास्ता अपना बनाओ,
पथ प्रदर्शक भी बनो,यह सोच त्यागो, दीन  हो तुम. 

दूसरे का ले सहारा जो चले , वह स्वयं क्या है ,
खुद कहाँ पहचान उसकी, हर समय पीछे खड़ा है,
जाय रुक अगला तो रुकना, चल पड़े अगला तो चलना,
खुद नहीं मालूम जाना है कहाँ, पथहीन हो तुम .

 मानता नव पथ सृजन में, श्रम बहुत ,संघर्ष भी है,
किन्तु श्रम,संघर्ष का प्रतिफल ,नया उत्कर्ष भी है,
सोचिये खुद के बनाए मार्ग के अधिपति तुम्हीं हो,
तुम प्रणेता,प्रेरणा,प्रेरक स्वयं स्वाधीन हो तुम .

मरो तो हंसते हुए,पर जियो तो सिर को उठाकर ,
स्वर्ण से कुंदन बनोगे,अग्नि में देखो तपाकर ,
सिर्फ उनको ही डराता समय,जो भयभीत हैं खुद,
करो अपने पर भरोसा,कब , किसी से हीन हो तुम.
किसलिए सिर को झुकाए, किसलिए गमगीन हो तुम.    

Saturday, June 11, 2011

(59) यह कैसा है लोकतंत्र

बेलगाम नौकर, जनसेवक, मालिक दर-दर रिरियाता है.
यह कैसा है लोकतंत्र ,जिसमें बस लोक छला  जाता है.

हे मतदाता खुद को जानो,खुद अपनी ताकत पहचानो,
देश लुटेरों के हाथों में ,मत सौंपो, जागो दीवानों.
बहुत हुआ अब सहन न होता, इन्हें बताना ही यह होगा,
लोकतंत्र के सिंहासन का , असली मालिक मतदाता है.

दान नहीं, हम भीख दे रहे, सीख इसलिए दे सकते हैं,
जिम्मेदारी सौंपी हमने, तो हिसाब भी ले सकते हैं.
नेता पण्डे नहीं , और यजमान नहीं हम हैं घाटों के,
यह एहसास करा दो, मतदाता ही भारत निर्माता है .

इंसानों से इतर नहीं ये,मत इनको भगवान् बनाओ,
क्या जाने कैसे निकलेंगे, मत फूलों के हार पिन्हाओ.
बदलो-परखो, परखो-बदलो, अब अपना सिद्धांत बनाओ,
क्यों हर बार लुटेरा, रहजन ही जनप्रतिनिधि बन जाता है.

हर चुनाव में गलती अपनी और बाद में चिल्लाते हैं,
वे ठगते हैं माना, लेकिन हम क्यों स्वयं ठगे जाते हैं .
गलती एक बार हो सकती , बार-बार ऐसा क्यों होता,
सोचो क्यों अपना ही सेवक, मालिक जैसा गुर्राता है . 

(58) फिर उठा गांडीव अर्जुन

अनवरत अन्याय है,अब पीर पर्वत हो चुकी है ,
भारती के लाल जागो,आज फिर भारत दुखी है .

अनाचारों से भरे फिर मेघ मडराने लगे हैं,
फिर वही वहशी ,दरिन्दे, देश पर छाने लगे हैं.
वे विदेशी थे,लड़े जिनसे,जिन्हें हमने भगाया,
आज देशी पालतू भी, खुद पे गुर्राने लगे हैं.
हे भरत के अंश,उल्टी धार यह कब तक बहेगी,
सच खड़ा नंगा है, लेकिन चोर, व्यभिचारी सुखी है

हाथ जोड़े थे खड़े कल,आज वे उठने लगे हैं,
सच दबाने के लिए, सब चोर फिर जुटने लगे हैं.
हर तरफ गहरा कुहासा है,धुंआ फैला हुआ है,
इस धुएं से सत्यता के, प्राण भी  घुटने लगे हैं.
हर अनाचारी से कह दो , होश में आ जाय वरना,
उबल सकता है , ह्रदय में जो छुपा ज्वालामुखी है.

डालियाँ चुभने लगें खुद के, तो उनको छांट  डालो,
हाथ अपना भी अगर सड़ने लगे,तो काट डालो.
किन्तु उससे भी जरूरी है की पहले भ्रांतियों की,
भेदभावों की ये गहरी खाइयां सब पाट डालो. 
राष्ट्र के हित दुष्ट का मर्दन,ये गीता में लिखा है,
फिर उठा गांडीव अर्जुन,महाभारत छिड़ चुकी है .


  

Tuesday, June 7, 2011

(57) सुराज चाहिए हमें

स्वराज चाहिए हमें, सुराज चाहिए हमें .
वो तब नहीं, वो कल नहीं, वो आज चाहिए हमें.

स्वतंत्रता के वक्त के, वो सब्जबाग क्या हुए ,
प्रजा का तंत्र, लोकतंत्र के वो राग क्या हुए,
वतन के उन शहीदों का लहू पुकार कह रहा ,
फिर इन्कलाब और वही महाज चाहिए हमें.
स्वराज चाहिए हमें,सुराज चाहिए हमें.

जो न्याय कर सके नहीं, नहीं वो तंत्र चाहिए,
असत्य से भरा हो जो, नहीं वो मंत्र चाहिए ,
ये गोलमाल,भ्रष्टता ,नृशंसता,अशिष्टता 
भरा हुआ नहीं ये काम -काज चाहिए हमें.
स्वराज चाहिए हमें,सुराज  चाहिए हमें. 

ये चोर-चोर भाइयों का खेल अब न चाहिए ,
ये दलबदल, दलों की रेल-पेल अब न चाहिए,
गुनाह से भरे हुए ये हुक्मरान की जगह,
जो न्याय के लिए लड़े, मिजाज चाहिए हमें.
स्वराज चाहिए हमें,सुराज चाहिए हमें.

जो मंदिरों के , मस्जिदों के नाम पर लड़ा रहे ,
जो धर्म, जाति, वर्ग भेदभाव को बढ़ा रहे ,
उन्हें भी ठोकरों पे लो ,जो स्वार्थ से भरे हुए ,
फिर एक नेक , संगठित समाज चाहिए हमें.
स्वराज चाहिए हमें,सुराज चाहिए हमें.

अधूरे स्वप्न रह गए जो वीरवर सुभाष के ,
जो गाँधी, नेहरू,शास्त्री ,पटेल, जयप्रकाश के,
वो भार है हमारे सिर , प्रतिज्ञाबद्ध हो कहो ,
वो बापू वाला सिर्फ रामराज्य चाहिए हमें ,
स्वराज चाहिए हमें,सुराज चाहिए हमें.

Sunday, June 5, 2011

(56) काव्य को धंधा बनाओ

वे जो वास्तव में कविता लिखते हैं, उनके साथ उनके अपने ही घर में क्या गुजरती होगी , इस कल्पना को मैंने कविता के माध्यम से ही शब्द देने का प्रयास किया है .अपने पाठकों का आशीर्वाद और सहयोगियों की टिप्पणी चाहूँगा .


हे मेरे प्रिय कवि सजन ,अब काव्य रचना भूल जाओ,
ध्यान से सुनना हमारी बात ,घर में मन लगाओ .

घर-गृहस्थी में बहुत कुछ चाहिए ,यह जान लो तुम ,
सिर्फ कविता से न चलना काम ,अब यह मान लो तुम.
आज तक तुम थे अकेले, जिस तरह चाहा रहे हो ,
काव्य गंगा में नहाए , मगन हो बहते रहे हो .

पर नहीं अब वह चलेगा , जो कहूं करना पड़ेगा ,
बात न मानी अगर , तो खुद किया भरना पड़ेगा .
अब तुम्हारा गीत हूँ मैं , अब तुम्हारी प्रीत हूँ मैं ,
आज से रचना तुम्हारी मैं ,सुगम संगीत हूँ मैं .

मैं  तुम्हारी कामना, मैं  ही तुम्हारी साधना हूँ ,
मैं  तुम्हारा स्रजन पथ हूँ धर्म, व्रत आराधना हूँ .
आज से कविता तुम्हारी, छंद रस हूँ, भाव हूँ मैं , 
कोकिला की कूक, वासंती पवन हूँ ,छांव हूँ मैं .

दीन  की अभिव्यक्ति पर लिखते रहे ,लेकिन मिला क्या ,
जो अकिंचन हैं स्वयं ही,वे तुम्हे देंगे सिला क्या .
पेट को रोटी नहीं जिनके , तुम्हें क्या दे सकेंगे ,
हाँ तुम्हीं से सिरफिरे कुछ ,वाहवाही भर करेंगे .

शब्द के ही शर चलाते ,आज तक गाते रहे हो,
और बदले में निरर्थक शब्द भर पाते रहे हो .
शब्द सरिता में नहा सकते हो, खा सकते नहीं हो,
आज की असली जरूरत , कभी पा सकते नहीं हो .

कल नहीं यह आज है , जो कठिन, कर्कश,तीत भी है, 
अर्थ युग में सिर्फ पैसा ही सगा है, मीत भी है .
यह नहीं कहती की कविता मत लिखो , पर लिखो ऐसा, 
जो बिक़े बाज़ार में महंगा ,मिले कुछ दाम-पैसा .

आज से कविता नहीं ,दायित्व पहला मैं तुम्हारा ,
इसलिए काव्यत्व छोडो ,कुछ नया सोचो सहारा .
छोड़कर कविता-कहानी , अर्थ के नवगीत गाओ, 
अन्यथा मुश्किल पड़ेगी ,समय रहते चेत जाओ .

समय के संग-संग चलो ,सत्ता समर्थक गीत गाओ ,
रात को दिन, आम को इमली कहो ,पैसा कमाओ .
काव्य को गंगा नहीं-प्रिय, काव्य को धंधा बनाओ ,
बस समर्थों को सराहो ,उन्हीं के यशगीत गाओ .    






Friday, June 3, 2011

(55) ठहर जा वरना अभी

मित्र तुम विषधर अगर ,तो मैं गरल पायी सदाशिव ,
इस जगत का ,मैं हलाहल ही सदा पीता रहा हूँ .
तुम अकेले क्या डराओगे मुझे फुफकार कर के ,
आदि से ही विषधरों के मध्य मैं जीता रहा हूँ .

तोड़ सकता हूँ तुम्हारे दांत ,चाहूं तो अभी पर ,
क्या करूं ,प्रतिकार की मन भावना आती नहीं है .
और तुम मुझको निबलतम मान कर फुफकारते हो
क्योंकि दुर्जन आत्मा ,सदभाव अपनाती नहीं है .

सोचता था ,तुम स्वयं ही समय से कुछ सीख लोगे ,
किसी दिन  विषदंत अपने खुद गडाना छोड़ दोगे .
याकि शायद खुद तुम्हारी अंतरात्मा जाग  जाये ,
और अपनी धृष्टता को तुम स्वयं ही मोड़ दोगे .

क्षम्य थी फुंकार ,लेकिन दंश अब तुम दे रहे हो ,
बस मुझे " भोला " समझकर करवटें तुम ले रहे हो .
रूप प्रलयंकर दिखाने को विवश मुझको करो मत ,
क्यों हमारे धैर्य की , इतनी परीक्षा ले रहे हो

तीसरा यदि चक्षु ही बस खोल दूं मैं ,तो तुम्हारा
जायगा अस्तित्व  मिट,यह मैं स्वयं भी जानता हूँ .
घाव पर ही घाव देते जा रहे ,कितना सहूँगा ,
ठहर जा- वरना अभी बस पाशुपति मैं तानता हूँ .

Thursday, June 2, 2011

(54) भूमि पर आना पड़ेगा


मानता हाथी बड़े हो
क्योंकि सत्ता में खड़े हो
आज ताकत है तुम्हारे हाथ में
मदमत्त हो तुम .
तंत्र के सब यन्त्र थामे हो
स्वयं ही शस्त्र हो तुम .
और हम हैं चींटियों जैसे 
तुम्हारे सामने बस -
रौंद सकते हो निरंकुश 
तंत्र का लेकर सहारा .
वक्त आने पर बताएँगे तुम्हें औकात अपनी 
साक्षी इतिहास -
हर अन्याय का गिरता है पारा .

किन्तु कल जब -
समय का यह चक्र फिर उलटा चलेगा .
जब तुम्हारे प्रभव का सूरज 
क्षितिज में जा ढलेगा .
और हाथों में विरोधी के -
समय का तंत्र होगा .
आज का यह तंत्र -
उसके तेज से अभिमन्त्र होगा.
गिड़गिड़ाओगे हमारे सामने 
आकर दुबारा .

सोच लेना चींटियाँ भी कम नहीं होतीं
अगर समवेत हों तो .
हाथियों को निगल सकती हैं
स्वयं यदि एक हों तो .
और यदि उनमें से कोई
जान की बाजी लगाकर
मत्त गज की नासिका में घुस -
कहीं पर काट पाई
तो तुम्हारा स्वयं का
अस्तित्व ही जाता रहेगा .
इसलिए नीचे भी देखो -
क्योंकि कितना भी उड़ो तुम -
एक दिन तुमको भी निश्चित 
भूमि पर आना पड़ेगा .
और जिनको - 
हीनता की दृष्टि से तुम देखते हो 
द्वार उनके -
याचना का पात्र ले जाना पड़ेगा .  

Wednesday, June 1, 2011

(53) जब न होंगी बेटियां

ख्वाहिशें औलाद की , पर चाहिए बेटा उन्हें
गर्भ में ही मार दी जातीं बिचारी बेटियां .
वजह यह , मुफलिस खरीदें महंगे दूल्हे किस तरह
अब भी बिन पैसे के रह जातीं कुंवारी बेटियां 

एक घर में चार बेटे हों भी तो ,टंटा रहे 
मायका -ससुराल दो-दो घर निभाती  बेटियां 
चाहिए बेटों को दौलत ,जर ,जमीनें ,जायदाद 
 प्यार के दो बोल को भी तरस जातीं बेटियां 

शारदा ,लक्ष्मी ,भवानी देवियों के देश में
 इतनी बेकद्री  की बस आंसू बहाती बेटियां
घर, शहर, सरकार तक एक अजब सा सौतेलापन
किन्तु फिर भी स्नेह का सागर लुटातीं बेटियां . 

बाप, बेटी का ,बहुत कम होता है दुश्मन मगर
जान की दुश्मन वही ,जो खुद कभी थीं बेटियां
होश में आओ दरिंदों ,बेटियों के कातिलों
बहू लाओगे कहाँ से ,जब न होंगी बेटियां .

(52) बहू बेटी से हरगिज कम नहीं होती

ससुर जी बाप,सासू माँ ,ननद जैसे सगी बहना 
नए घर में ,नए परिवेश में आकर भी खुश रहना
पती को देवता ,देवर को भाई ,और घरवाले सगे जैसे 
समझकर भी ,उलाहने और तानों को सहज सहना .

जरा सोचो बहू भी थी किसी की लाडली बेटी 
वो अपने छोड़ ,क्या सपने सजाये साथ लाई है 
जहाँ जन्मी ,पली ,खेली ,बढ़ी उनसे अलग होकर 
बहाती आंसुओं की धार ,लेकर प्यार आयी है 

किसी की और की बेटी , बिना जाये,बिना पाले 
तुम्हारी बन गयी बेटी , खुदा का शुक्रिया करिए 
तुम्हारी खुद की बेटी भी , किसी घर की बहू होगी 
जरा इस बात का भी ध्यान थोड़ा कर लिया करिए 

वो लक्ष्मी है,रुलाओगे तो निश्चय रूठ जायेगी 
वो पूर्णा है ,रहेगी खुश तो सारा घर सजायेगी 
बहू,बेटी से हरगिज कम नहीं होती है ,बढ़कर है 
तुम्हारे वंश की नवबेलि को आगे बढायेगी .