परिंदों के घरौंदों को , उजाड़ा था तुम्हीं ने कल ,
मगर अब कह रहे हो , डाल पर पक्षी नहीं गाते।
तुम्हीं थे जिसने वर्षों तक , न दी जुम्बिश भी पैरों को ,
शिकायत किसलिए , गर दो कदम अब चल नहीं पाते ?
वो पोखर , झील , नदियाँ , ताल सारे पाटकर तुमने ,
बगीचे , पेड़ - पौधे , बाग़ सारे काटकर तुमने ,
खड़ी अट्टालिकाएं कीं , बनाए महल - चौमहले ,
मगर अब कह रहे , बाज़ार में भी फल नहीं आते।
ये कुदरत की , जो बेजा दिख रही तसवीर है सारी ,
तुम्हारी ही खुराफातों की , ये तासीर है सारी ,
वही तो काटना है पड़ रहा , बोते रहे जो कुछ ,
मगर फिर भी ,अलग फितरत से खुद को कर नहीं पाते।
- एस .एन .शुक्ल
मगर अब कह रहे हो , डाल पर पक्षी नहीं गाते।
तुम्हीं थे जिसने वर्षों तक , न दी जुम्बिश भी पैरों को ,
शिकायत किसलिए , गर दो कदम अब चल नहीं पाते ?
वो पोखर , झील , नदियाँ , ताल सारे पाटकर तुमने ,
बगीचे , पेड़ - पौधे , बाग़ सारे काटकर तुमने ,
खड़ी अट्टालिकाएं कीं , बनाए महल - चौमहले ,
मगर अब कह रहे , बाज़ार में भी फल नहीं आते।
ये कुदरत की , जो बेजा दिख रही तसवीर है सारी ,
तुम्हारी ही खुराफातों की , ये तासीर है सारी ,
वही तो काटना है पड़ रहा , बोते रहे जो कुछ ,
मगर फिर भी ,अलग फितरत से खुद को कर नहीं पाते।
- एस .एन .शुक्ल