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Monday, May 23, 2011

(15) कितना सुन्दर वह बचपन था

छोटे न बड़े का अंतर था, न उंच-नीच का भेदभाव
था लाभ- हानी का खेद नहीं, न सुख-दुःख का कोई प्रभाव
खेलना और खाना सोना बस केवल इतना जीवन था
मस्ती के दिन मधुमय रातें कितना सुन्दर वह बचपन था.

क्या अपने और पराये क्या, सारा संसार हमारा था
सबका प्रिय, सबका स्नेह पात्र, सबकी आँखों का तारा था
मेरी किलकारी क्रीडा से घर भी बन जाता उपवन था
मस्ती के दिन मधुमय रातें कितना सुन्दर वह बचपन था.

खेलना, झगड़ना या लड़ना, रूठना, मनाना ही बस था
पर हम सब के उस झगडे में भी एक अनूठा ही रस था
संवादहीनता का हो जाता कुछ पल बाद समापन था
मस्ती के दिन मधुमय रातें कितना सुन्दर वह बचपन था.

हम बढे और दूरियां बढीं, फिर भेद-भाव पनपा मन में
हम उच्च और वे दलित, नीच विष लगा दीखने चन्दन में
अब वे भी खिचे-खिंचे से थे, रह गया न वह अपनापन था  
मस्ती के दिन मधुमय रातें कितना सुन्दर वह बचपन था.

सोचो बच्चे हैं श्रेष्ठ, याकि अब हम वयस्क हो अच्छे हैं 
हम घृणा, स्वार्थ, तिकड़म में रत, वे कितने सीधे-सच्चे हैं 
अब सीमाओं में बंधे हुए, तब सारा ही जग आँगन था 
मस्ती के दिन मधुमय रातें कितना सुन्दर वह बचपन था.


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