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Tuesday, March 27, 2012

(145) हिन्दोस्तान अपना है /

कहीं हो आग ,  जलायेगी उसकी फितरत  है,
कभी किसी का जले घर, मकान अपना  है  /

जो मरा हिन्दू, मुसलमाँ , ईसाई , सिख वो नहीं,
ज़रा  सा  गौर से  देखो , वो  कोई  अपना  है  /

मुल्क को बाँट सियासत में, कौम-ओ- फिरकों में ,
किसी  सुकून की  ख्वाहिश , ये महज  सपना है  /

नफरतें बोना- उगाना , ये बात ठीक नहीं ,
ओ नेकबख्त , ये सारा ज़हान अपना है  /

अपनी हरकत से झुके सिर न सरज़मीं का कहीं ,
ये देश अपना है , शान - ओ - गुमान  अपना है  /

वो लूट कैसी , कहीं भी , किसी के साथ सही  ,
जो लुट रहा है , वो हिन्दोस्तान  अपना है  /

                                  - एस. एन. शुक्ल 

Thursday, March 22, 2012

(144) निभाता रहा हूँ मैं /

हंसकर हर एक गम को भुलाता रहा हूँ मैं  /
ऐ  ज़िंदगी ! तुझे  यूँ   निभाता  रहा हूँ  मैं  /

औरों को न हो मेरे किसी दर्द का एहसास ,
यह सोच , अपने ज़ख्म छुपाता रहा हूँ मैं  /

खुशियाँ भी बाटने में हिचकते हैं जबकि लोग,
तब  दर्द   दूसरों   का  ,  बटाता  रहा  हूँ  मैं  /

लोगों को गिले हैं , कि मैंने कुछ नहीं किया ,
कन्धों पे  हिमाला को , उठाता  रहा हूँ  मैं  /

खुशियों के पल भले ही कम हों , उनको याद कर ,
अपना  हर  एक  दर्द  ,  भुलाता  रहा हूँ  मैं  /

खंजर  मेरे सीने  में , धँसे  हैं अज़ीज़  के ,
जब दुश्मनों से खुद को, बचाता रहा हूँ मैं /

अनजाने दे सका न कोई एक भी खरोच ,
साँपों को खुद ही दूध पिलाता रहा हूँ मैं  /

                                - एस. एन. शुक्ल 

 

Friday, March 16, 2012

(143) मुक्तक -2

                                           (१)
असंभव बच निकलना हो , तो डटकर सामना करिए /
समय प्रतिकूल हो तो भी , विजय की  कामना करिए /
ये  बाधाएं ,  विषमताएं ,    परीक्षाएं   हैं  जीवन  की ,
इन्हें उत्तीर्ण  करने  के लिए , श्रम - साधना  करिए /
                                         (२)
बहुत  से  लोग , अक्सर  डूब जाते हैं किनारे पर ,
वो हैं , वे लोग , जो  रहते  हैं औरों  के सहारे पर  ,
जो करते हैं भरोसा  खुद  का , जो  खुद्दार होते हैं ,
बदल जातीं परिस्थितियाँ भी हैं , उनके इशारे पर /
                                      (३)
जरूरी है कि  गैरों  में भी ,  कोई  आत्मजन  खोजें ,
जहाँ मूर्खों का जमघट हो , वहाँ भी ज्ञान-धन खोजें ,
नहीं होता  कोई  अपना ,  कोई  दुश्मन  नहीं होता ,
कहाँ , क्या चूक खुद से हो रही, अपना भी मन खोजें /
                                    (४)
सफलता का कभी मापक , जुटाना धन नहीं होता ,
वही है दीन सबसे , स्वच्छ जिसका मन नहीं  होता ,
धरा, धन, धाम,संसाधन , यहाँ अब तो वहाँ कल हैं ,
कभी धन से  सुयश  या  कीर्ति स्थापन नहीं होता  /
                                   (५)
जरूरी धन मगर उतना , जो मद से  भर  न दे मन को ,
सुलभ उतने हों  संसाधन ,  जरूरी  हैं  जो  जीवन  को ,
अगर धन है प्रचुर , लेकिन नहीं सुख - शान्ति जीवन की ,
तो उससे सौ गुना ,  खुशहाल समझो  दीन - निर्धन को /
                                               - एस.एन.शुक्ल
 

Tuesday, March 6, 2012

(142) रंगों के पर्व रंगारंग कर दे

रंगों  के  पर्व  रंगारंग   कर   दे /
खुशी से अंग हर प्रत्यंग भर दे /
उमंगों के बाहें निर्झर धरा पर  ,
आज तू तर- बतर हर अंग कर दे /
रंगों  के  पर्व  रंगारंग   कर   दे /

रंगों का अर्थ ही  होता  है  खुशियाँ ,
रंगों के मध्य ही बसती हैं खुशियाँ ,
ये खुशियाँ जायँ बन सच्चाइयाँ अब ,
तू अपने रंग में वह रंग भर दे /
रंगों  के  पर्व  रंगारंग   कर   दे /

बजाती तू मिलन का साज होली ,
तू है, पर्वों के सिर का ताज  होली ,
दूरियाँ जायँ मिट मानव मनों की ,
तू कुछ इस बार ऐसा  ढंग कर दे /
रंगों  के  पर्व  रंगारंग   कर   दे /

तू आती और बस जाती चली है ,
खिलाती प्रेम की आकर कली है ,
ठहर जा , आके तू  इस बार शुभगे ,
होलिके ! रूढ़ियों को भंग कर दे /
रंगों  के  पर्व  रंगारंग   कर   दे /
                  -  एस. एन. शुक्ल 





Friday, March 2, 2012

(141) प्यासा रहा हूँ मैं /

नदी की धार में  बहते  हुए ,  प्यासा  रहा  हूँ  मैं ,
कभी पूरी न हो पाई , वो  अभिलाषा  रहा हूँ  मैं ,
मैं सारी जिन्दगी ऐसे जिया, जैसे खुली पुस्तक ,
समझ पाया जिसे कोई न , वह भाषा रहा हूँ मैं  /

मैं कतरा हूँ,  समंदर की  निगहबानी में रहता  हूँ ,
मैं लहरों में, तरंगों में ,  उछलता  और  बहता  हूँ  ,
मैं इस दुनिया से बाहर, दूसरी दुनिया से डरता था ,
उसी का फल, मैं सारी ज्यादती चुपचाप सहता हूँ /

ये माना , आज कतरे से , समंदर हो चुका हूँ मैं ,
मगर होकर समंदर भी, स्वयं को खो चुका हूँ मैं ,
समंदर रोज बढ़ता जा रहा है इसलिए,  क्योंकर ,
बहाता आँसुओं की धार ,  इतना रो चुका हूँ  मैं  /

जो खुद  के  वास्ते जीते  हैं , जो  खुदगर्ज़ होते  हैं ,
वे  अपने  हाथ  अपनी  जिन्दगी में , खार बोते  हैं ,
मैं अपनी आपबीती से , महज इतना समझ पाया ,
वे अक्सर ठोकरें खाते हैं,  अक्सर अश्क  पीते  हैं  /

                                        - एस. एन. शुक्ल