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Saturday, May 28, 2011

(32) मैं विद्रोही बन जिया सदा


कुछ लोग हवा के साथ चले, धारा के साथ बहे  होंगें
लोगों की नजरों में शायद वे ही तैराक रहे होंगे
मैं सदा चला विपरीत धार, मझधार-पार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

गद्दों पर उनको नींद नहीं, मैंने धरती पर सुख पाया 
वे फूल कुचलते निकल गए, मैंने काटों को अपनाया
उनको न चैन था महलों में, मैं खपरैलों में रहा मस्त 
मैं लड़ा अनल की लपटों से शीतल  फुहार से क्या लेना 
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

मेरी दस दिन की रोटी में, उनका बस एक निवाला था
बाहर से जितना उजले वे, अंतरतम उतना काला था
छल-छदम न मैंने अपनाया, मैं हूँ पुस्तक का खुला पृष्ठ
मैंने प्रकाश को अपनाया, फिर अन्धकार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

था सुना आग की लपटों से सोना कुंदन बन जाता है
पत्थर पर घिस जाने पर ही मेंहदी का रंग दर्शाता है
गोरी के गले लगा न सही,न उसकी रचा हथेली पर
संघर्ष मार्ग का राही मैं, मुझको बहार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

वे छिपकर तीर चलाते थे, मैंने छाती पर सहे वार
वे रहे कोंचते घावों को, मैंने बदले में दिया प्यार
वे रहे लूटते, हम लुटते,पर मैंने छोड़ा नहीं लक्ष्य
सहलाया मैंने चोटों को, मुझको प्रहार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

5 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी हर रचना मन के अंतस को छूती है ..आभार सुन्दर रचना के लिए

S.N SHUKLA said...

MAIDAM,

Rachnakaar ka pryas hota hai ki vah achhi se achhi prastuti de sake.Apko rachna achhi lagi,Aapke dwara utsahvardhan ke prati main aabhari hun.

mridula pradhan said...

मैं सदा चला विपरीत धार, मझधार-पार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.
hriday ke ekdam sameep......bahut sunder likhe hain.

shikha varshney said...

वाह ....लगता है सारी रचनाएँ पढनी होंगी आपकी.

Unknown said...

वे छिपकर तीर चलाते थे, मैंने छाती पर सहे वार
वे रहे कोंचते घावों को, मैंने बदले में दिया प्यार

आभार सुन्दर रचना के लिए