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Friday, December 30, 2011

(129) नये वर्ष की शुभ मधुर कामनायें /

                                     स्वीकारें नव वर्ष की शुभकामनायें
                                    =======================
 सभी मित्रों, शुभचिंतकों तथा पाठकों तक व्यक्तिगत नव वर्ष की  शुभकामनायें काव्यांजलि के रूप में पहुंचा रहा हूँ.  आशा है आप इन्हें स्वीकारेंगे और शुभकामनायें आप तक पहुँचीं , इसकी पुष्टि भी करेंगे /
                                                                         आप सब का - एस. एन. शुक्ल



प्रगति पथ बढ़ें , दुःख विगत के भुलायें,                                
नये वर्ष  की  शुभ -  मधुर  कामनायें /

रचें नव स्रजन का , नया तंत्र  फिर से ,
जपें जागरण का ,  नया मंत्र  फिर से ,
वरें  साधना, साध्य के हित लगन से ,
करें राष्ट्र जीवन को , अभिमन्त्र फिर से ,
नया  पथ , नये  साध्य , साधन जुटायें /
नये वर्ष  की  शुभ -  मधुर  कामनायें /

न आये  कोई , लोक जीवन  में  बाधा  ,
जो हो लक्ष्य , उससे मिले और ज्यादा ,
मिले  हर्ष , उत्कर्ष , सन्मार्ग  के  पथ ,
चलें साथ मिल , यह अटल हो इरादा  ,
स्वहित , सर्वहित , मन रहें भावनायें /
नये वर्ष  की  शुभ -  मधुर  कामनायें /

न हो  वेदना  से  ,  कोई  सामना अब ,
न हो , स्वार्थ के सिद्धि की कामना अब,
न हो व्याधि, बाधा , किसी तन व मन में,
रहे लोक -हित , मन विमल कामना अब ,
न  हों  ,  ईर्ष्या -द्वेष   सी    कल्पनायें  /
नये वर्ष  की  शुभ -  मधुर  कामनायें /

लता, तरु , विटप पुष्प- फल से भरें फिर ,
धरा,  धान्य- धन , सम्पदा  से  भरे  फिर ,
जरें ,   द्वेष - संताप    की     सर्जनाएं ,
प्रकृति  शक्तियाँ, लोक मंगल करें  फिर ,
बहें  ,  स्नेह - सौहार्द    पूरित  हवाएं  /
नये वर्ष  की  शुभ -  मधुर  कामनायें /
                        - एस. एन. शुक्ल







Sunday, December 25, 2011

(128) आवाज़ लगाते रहिये /

          पत्थरों के शहर में , कितना सिर झुका के चलें ,
          उठे जो संग ,  तो  सिर  को भी  उठाते   रहिये  /

          अन्धेरा सारा मिट सकेगा , ये  मुमकिन न सही ,
          फिर भी उम्मीद की ,  इक शमअ जलाते रहिये /

          कोई   तो   तीर ,   निशाने  पे  लगेगा  आखिर ,
          ये सोचकर   ही    सही ,  तीर   चलाते   रहिये  /

          जो लड़ रहे  हैं  अंधेरों  से  ,   अकेले  न  पड़ें  ,
          उनकी आवाज़  में  , आवाज़  मिलाते रहिये /

          सियाह रात के  फिर बाद , खुशनुमा   है सहर ,
          कम से कम  इतना , दिलासा तो दिलाते रहिये /

          कोई जगे न जगे  , काम ये उनका है ,  मगर -
          तुम्हारा  फ़र्ज़  है  , आवाज़  लगाते  रहिये  /
                                             - एस. एन. शुक्ल 

Thursday, December 22, 2011

(127) आग जलवाइये /

आ गयी फिर शरद ऋतू  ठिठुरती हुई ,
आग का सेक  दे , इसको   गरमाइये /
कंप रही शीत से ,  कितनी  बेचैन  है,
गर्म कपड़े   इसे ,  थोड़े    पहनाइये  /

साथ में कुहरे , पाले  से  बच्चे  भी हैं ,
देर  तक  ये  जगेंगे ,  सतायेंगे   भी /
ये शरारत न कर पायें , सो जाएँ चुप ,
इनको गद्दे  , लिहाफों  में बहलाइए /

ताज़ा  पूडी - कचौड़ी  व छोले - करी -
में ज़रा छौंक ,   मेथी की  लगवाइए /
गुनगुनी चाय संग केक - बिस्कुट नहीं,
प्याज के कुछ  पकौड़े  भी तलवाइये /

बात है कुछ दिनों की ये , स्वागत करो,
यह अतिथि है इसे ज्यादा टिकना नहीं /
हर अतिथि देव है, अपनी संस्कृति है ये ,
इसलिए इसको   आसन दे  बिठलाइये  /

एक ही  माह  की   बात  बस  शेष  है ,
सरदी बच्चों को लेकर चली जायेगी /
फिर वसंती पवन , आयेगी सज के तन ,
साथ में , मधु- मधुर  गंध भी  लायेगी /

रात के बाद दिन , और फिर रात- दिन ,
यह समय चक्र ,  यूँ   ही चला है  सदा  /
सर्दियाँ   जायेंगी  ,   गर्मियाँ  आयेंगी  ,
तब तलक द्वार पर , आग जलवाइये  /
                           - एस. एन. शुक्ल 

Friday, December 16, 2011

(126) इनको रोकिये /

       एक थप्पड़ पे बहस इतनी, कि बस मत पूछिए
        मानों बम फिर फट पड़ा हो झवेरी बाज़ार में /
        aur जो हर रोज थप्पड़ खा रहे हैं लाखों - लाख ,
        क्या वे थप्पड़ लग रहे हैं , हुक्मरां के प्यार में ?

       जिसने मारा, उसको बेशक बंद कर दो जेल में ,
        मगर यह तो हो नहीं सकता , बगावत का ज़वाब /
        खोलिए आँखें , ये पहला वाकया भी तो नहीं,
        करवटें लेता है दिखता , फिर फ़जां में इन्कलाब /

        समझो क्यों इन्सान , गुस्से में उबलने लग गया ,
        समझो क्यों जोश -ए-ज़वानी, इस कदर है तैश में /
        ख्व़ाब में खोये रहे , समझा न रैय्यत का मिज़ाज ,
        तो   नहीं   महफूज़   रह    पाओगे ,    शाही-ऐश  में /
                                                                ----------

        सच ये थप्पड़ है, समूची हुकूमत के गाल पर ,
        सच ये है सोज़े- बगावत हुक्मरानों के खिलाफ़ /
        ज़ब   तहम्मुल  की  हदें  हैं  टूटती ,  होता है ये ,
        उठ खड़ा होता है इन्सां , साहबानों के खिलाफ़ /

        गर्म   है   माहौल ,   शोलें   हैं   जवानों   के   दिमाग़ ,
        आंधियाँ उठने को हैं , मत धूल इन पर झोंकिये /
        ज़र्रा- ज़र्रा   आग   बन   जाने   को   ज़ब   बेचैन   है ,
        हाथ ये , हथियार बन सकते हैं , इनको रोकिये /
                                        
                                                     - एस. एन. शुक्ल

      शाही-ऐश = राजभवन की विलासिता
      सोज़े- बगावत = विद्रोह की ज्वाला
      तहम्मुल = सहनशीलता
      ज़र्रा- ज़र्रा = कण- कण



Saturday, December 10, 2011

(125) ऐसा कभी खुदा न करे

तुझे  भुलाऊँ मैं , ऐसा कभी खुदा न करे /
मेरे ख़याल से सूरत तेरी  जुदा  न  करे  /

इश्क  की राह , समंदर से  बड़ी  होती है  ,
निभा सके न जिसे , ऐसा वायदा न करे /

मरीज़ मुझको, तुझे लोग  दवा  कहते हैं ,
दवा, दवा ही नहीं , जो कि फ़ायदा न करे /


इश्क की आग की , कैसे वो तपिश समझेगा ,
जिसके महबूब को , कोई कभी जुदा न करे  /

अब तो ये ज़ख्म , ये नासूर ही ज़न्नत हैं मेरी ,
मेहरबाँ  होके  इन्हें , कोई  अलहदा  न  करे  /

Sunday, December 4, 2011

(124) दामन तेरा मैला न था /

                        पहले तो  तूने  कभी  , ऐसा ज़हर उगला न था  /
                         इस तरह , दुश्मन पे भी तेरा लहू उबला न था /

                        जब खडा था तू   !  अजीजों के लिए , खंजर लिए  ,
                        क्या न कांपा था कलेजा , दिल तेरा मचला न था ?

                        यूँ शहर में आज , सन्नाटे का आलम किसलिए  ,
                        क्या इधर से आज कोई  आदमी निकला न था  ?

                        आज  तेरे भी   ज़ेहन में ,  उठ रहा  होगा   सवाल  ,
                        क्यों उधर को चल दिए , जब रास्ता अगला न था ?

                       तुम तो दुश्मन पे भी , दुश्मन सी नज़र रखते न थे ,
                       बस इसी से , आज तक -  दामन तेरा मैला न था  /

Friday, December 2, 2011

(123 ) पहले इन्सान को इन्सान बनाया जाए

                                   फिर से बदलाव का एक दौर चलाया जाए  /
                                   पहले  इन्सान को   इन्सान बनाया जाए  /

                                  चाँद - तारों पे  पहुँचने लगा इन्सान मगर  ,
                                  आसमानों में भी उड़ने लगा इन्सान मगर ,
                                  यार मतलब के सभी , झूठ के रिश्ते - नाते ,
                                  भूलता जा रहा  , इन्सान को इन्सान मगर ,
                                  फिर से इन्सानियत का पाठ पढ़ाया  जाए /
                                  पहले  इन्सान को   इन्सान बनाया जाए  /

                                  पहले मुश्किल थी जिन्दगी , बहुत ही किल्लत थी ,
                                  पहले  रस्ते  न थे  ,  दूरी  थी  , मगर  मिल्लत थी ,
                                  पहले  गम  और खुशी  , गैर की  भी ,  अपनी  थी ,
                                  जिन्दगी तल्ख़ भले थी  ,  मगर- न ज़िल्लत  थी ,
                                  आज  के दौर ! किसे  अपना बताया जाए  /
                                  पहले  इन्सान को   इन्सान बनाया जाए  /

                                  लूट हर  ओर  मची  है , नीयत  में खामी  है,
                                  आम इन्सान की किस्मत में ही नाकामी है,
                                  अक्लमंदों को यहाँ ,खुश्क रोटियाँ मुश्किल ,
                                  हरामखोर  !    बड़े  हैं ,     बड़ा   हरामी   है ,
                                  हर गुनहगार  को  औकात में लाया जाए /
                                  पहले  इन्सान को   इन्सान बनाया जाए  /

                                                                    - S. N. Shukla

Tuesday, November 29, 2011

(122) मंजिल तलाशते रहे ....

मंजिल तलाशते रहे , परछाइयों के साथ  /
उगते रहे बबूल भी  ,  अमराइयों के साथ  /

सीने पे  ज़ख्म  खा के भी ,  खामोश  है कोई ,
अब गम मना रहे हैं वो , शहनाइयों के साथ  /

तब छाँव की तलाश में , दर- दर भटक रहे ,
जब शायबान उड़ गए  , पुरवाइयों के साथ  /

चाहत की बात का न तकाजा वो अब रहा  ,
हैं ख्वाहिशें दफ़न यहाँ , गहराइयों के साथ /

ताजिस्त वस्ल- ए - यार मयस्सर न हो सका ,
यह ज़िंदगी गुजर गई ,  तनहाइयों  के  साथ  /

Sunday, November 27, 2011

(121) दास्तां बदलो

अन्धेरा घिर न आये दोस्तों, बुझती शमां बदलो /
चमन गुलज़ार कर पाए न , ऐसा बागवाँ बदलो  /

 दिलों  में जल रही है आग ,   कैसी कसमसाहट  है,
ज़माना , चाहता कुछ कर गुजरना है , समां बदलो /

न ज्यादा आजमाने की , ज़रुरत रह गई  इनको ,
गुज़र जाएँ न लमहे , वक़्त रहते राजदां  बदलो  /

तसल्ली कब  तलक होगी भला झूठे दिलासों से ,
अगर बरसें न ये बादल , तो सारा आसमां बदलो /

दिया तब पीठ पर खंजर, इन्हें जब भी मिला मौक़ा ,
लुटेरे  काफिले  का   साथ  छोडो  , कारवां बदलो  /

ये इस्पाती घड़े हैं  , जुर्म से भर जायेंगे , फिर भी  ,
न टूटेंगे  ,  इन्हें तोड़ो  ,   पुरानी  दास्तां   बदलो  /


                                             - S. N. Shukla

Tuesday, November 22, 2011

(120) जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए-----

जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
गुल, गुलिस्तान के आह भरते रहे  , कसमसाती  रहीं  डालियाँ  उम्र भर /

अपने खाली कटोरे सिसकते रहे,  उनकी मेजों पे चम्मच खनकते रहे ,
बाग़ वे सब्ज हमको दिखाते रहे  , हम बजाते रहे तालियाँ  उम्र  भर  /

देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे  ,  वे  उठाते  रहे  उँगलियाँ उम्र भर  /

मेरे घर खोदकर बन गयीं  कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /

कितना ढाएँगे वे जुल्म और कब तलक, एक दिन वे भी तो ख़ाक में जायेंगे ,
जो जला वह बुझा , जो फरा सो झरा , सोच सहते  रहे  गालियाँ  उम्र भर  /

जिस्म इंसान के गोलियाँ बन गए  , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
                
                                                                        -S.N.Shukla

Wednesday, November 16, 2011

(119) तम भरी बदली टलेगी /

प्रकृति का है नियम परिवर्तन , अगर यह सत्य तो फिर ,
जो फरा   वह है झरा भी ,   सत्य है   यह तथ्य तो फिर ,
किसलिए मन में निराशा, भय , हताशा, खेद, सम्भ्रम,
जटिलता की   यह घड़ी भी  , क्या सदा यूँ  ही चलेगी  ?

मनुज के कृत कर्म से ,  माना समय   बलवान होता ,
किन्तु यह भी सत्य है  , हर उदय का अवसान होता ,
देव गति के सामने  ,  होती विवशता  हर किसी की ,
अवशता की अग्नि भी , उर में भला कब तक जलेगी ?

फल प्रकृति आधीन है , पर कर्म पर अधिकार तेरा ,
नियति भी झुकती उन्हीं से, तोड़ते जो विषम घेरा  ,
शुष्क पौधों को निराता - सींचता   यह सोच माली ,
कर्म कृषि अपने समय पर , एक दिन निश्चय फलेगी/

दैन्यता , असहायता का ,  दंश भी सह लो ह्रदय पर ,
ध्यान रखना, क्रोध या अविवेक मत छाये विनय पर ,
शील, साहस ने सदा ही , विजय पायी है समय से  ,
सूर्य  फिर होगा प्रभामय , तम भरी बदली टलेगी  /

Friday, November 11, 2011

(118) फिर अन्धेरा दौर

भूलना कर्तव्य को , अधिकार की बातें हमेशा ,
इस समूचे देश में , हर वर्ग का बस एक पेशा ,
दंभ का कुहरा , विनय की चाँदनी पर छा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

कर रहा छल- छद्म , जैसे हर नगर में आज फेरा ,
बन रहे  अपने , पराये ,   स्वार्थ का हर और डेरा ,
स्वान का सा धर्म , अब मानव मानों को भा गया है ,
फिर अँधेरा दौर  कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

आधुनिकता की  डगर में ,  टूटते रिश्ते पुराने ,
पालकों तक के हुए अब , आज सब चेहरे अजाने ,
अंधड़ों में फँस यहाँ ,  हर आदमी छितरा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

पागलों से घूमते हम , शस्त्र अपनों पर उठाये ,
क्या अमिय का अर्थ , जब विषकुम्भ निज उर में छिपाए?
दुष्टता का दैत्य  !  मानवता ह्रदय की खा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

                                              - S. N. Shukla

Monday, November 7, 2011

(117) हथियार संभालो

आज अहिंसा  नहीं जवानों  ,  हाथों में हथियार  संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो / 


रिरियाते - मिमियाते से स्वर, और याचना की मुद्राएँ  ,
दैन्य, दासता , जाति - धर्म की , ये ओछी-थोथी सीमाएँ,
तोड़ो, छोड़ो झूठे बंधन ,  सबल बनो , अधिकार संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /


दाता, दीन- हीन फिरते हैं ,   याचक हैं महलों के वासी ,
मूर्खराज का वंदन करती , प्रतिभा बन चरणों की दासी ,
आगे और अनीति नहीं अब , विषपायी तलवार संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /


कन्धों पर चढ़कर औरों के , पार करो मत गहरे जल को ,
जीवन की   गंभीर भंवर में  , कंधे  साथ न  देंगे कल को ,
बनो सफल तैराक स्वयं , औरों को भी उस पार निकालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /












                                                              S.N.Shukla

Friday, November 4, 2011

(116 ) गज़ब वो शिल्पकार है /

ये सस्य- श्यामला धरा, ये नीलिमा लिए गगन, 
ये तारकों भरी निशा , सुबह की मद भरी पवन,
ये शीत, ताप,  मेह ,   अंधकार में ,   प्रकाश में ,
ये हिम ,   नदी प्रवाह और शुभ्र   जलप्रपात में,
ये सूर्य- चन्द्र रश्मियों में ,जिसका साहकार है/
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

हरी- भरी ये वादियाँ,   पहाड़ ये   तने - तने ,
ये लहलहाते खेत और बाग़- वन घने - घने ,
वो जिसने रत्न   हैं   धरा के गर्भ में छुपा धरे ,
वो जिसके हर प्रयत्न हैं , मनुष्य बुद्धि से परे ,
जलधि तरंग को ,  उछालता जो बार- बार है  /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

असीम वारि राशि से, भरे हुए समुद्र ये ,
समुद्र के विशालकाय और जंतु छुद्र ये  ,
ये व्योम, वायु ,अग्नि,वारि , भूमि पंचतत्व से,
रचाया प्राणिमात्र को ,   विधान से, ममत्व से ,
किया उसी ने,  जीवनीय शक्ति का संचार है /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

रचे उसी   ने  जीव  और जंतु   हर प्रजाति के ,
रचे उसी ने अन्न , फल व पुष्प भाँति- भाँति के ,
रचा उसी ने धूप- छाँव , मेघ की फुहार को ,
रचा उसी ने वायु को, वसंत की बहार  को ,
किया उसी ने रंग, गंध , स्वाद का प्रसार है /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

Tuesday, November 1, 2011

(115) नारी की नियति विवशता है /

वह पिता और पति, पुत्रों क्या , जन - जन के द्वारा त्रस्ता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

था छला अहिल्या को जिसने, वह देवराज कहलाता है,
जननी हंता उस परशुराम का , सारा जग यश गाता है,
सोलह हजार रानी वाला ,  भगवान कहाया जाता है ,
पत्नी का दाँव लगाने वाला , धर्मराज पद पाता है ,
केवल नारी के ही जीवन में, यह कैसी परवशता है ?
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

हर युग में नारी का शोषण, इतिहास गवाही देता है ,
त्रेता , द्वापर में भी उसका , चीत्कार सुनायी देता है  ,
उस शेषनाग अवतारी ने , काटे नारी के  नाक- कान ,
रावण सा पंडित , ज्ञानी , छल से पर नारी हर लेता है ,
कापुरुष तलक बनकर भुजंग, बस नारी को ही डसता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

सीता की अग्नि परीक्षा ली ,  फिर भी न राम ने अपनाया ,
अम्बा को भीष्म महाबल से , क्यों भरी सभा से हर लाया ?
क्या द्रुपद सुता थी वस्तु , कि जिसको पाँच भाइयों ने बाँटा ?
पुरुषार्थ , विवश अबला पर ही , क्यों दुस्साशन ने अजमाया ?
अवसाद, घृणा या तिरस्कार से ही नारी का रिश्ता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

था पुरुष प्रधान समाज आदि से, नारी भोग्या कहलाई ,
बहुपत्नी नर कर लेता था, नारी कब बहुपति कर पायी ?
पति चिता मध्य पत्नी जलती थी, पति पर नहीं बाध्यता थी ,
नर रहा सदा ही मूल्यवान , नारी का जीवन सस्ता है  /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

वस्तु की भाँति बिकती थीं वे, ग्रंथों में इसका लेखा है ,
धन, धरा और नारी के कारण , ही युद्धों को  देखा है  ,
बालिका जन्मते ही ,  उसका वध कर देते थे राजपूत  ,
घर की चहारदीवारी ही, उसकी बस सीमा रेखा है ,
पर दया - धर्म , ममता , मृदुता , तब भी नारी में बसता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

सडकों, गलियों में छेड़छाड़ , भीड़ों में शीलहीन फिकरे ,
क्या राजनीति, क्या लोकरीति , नारी चरित्र के ही जिकरे ,
क्यों नारी के ही हिस्से में, ह्त्या, अपहरण , बलात्कार ,
ज्यों चील झपटती चूहों पर, ज्यों कबूतरों पर हों शिकरे ,
नारी भ्रूणों की ह्त्या कर , नर फिरता बना फरिस्ता है  /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /




Saturday, October 29, 2011

(114) तो क्या ?

अँधेरे चारों तरफ फिर वही, जो पहले थे,
एक गर रात , रोशनी में नहाई  तो क्या ?

जश्न की रात, रात भर हुई  आतिशबाजी ,
दिवाली एक रोज के लिए , आई तो क्या ?

उनसे पूछो , कि जिनके घर नहीं जले चूल्हे ,
शब किन्हीं की रही , प्यालों में समाई तो क्या ?

नकारखाने  में , तूती   के  मायने क्या हैं ,
कहीं आवाज भी, पड़ी जो सुनाई  तो क्या ?

साल में एक नहीं, तीन सौ पैंसठ दिन हैं ,
बलात एक दिन , रौनक कहीं आई तो क्या ?

रोशनी वो जो , हर बशर पे एक सा बरसे,
अधूरी रोशनी , फिर आई न आई तो क्या ?

                           - एस. एन.शुक्ल 

Sunday, October 23, 2011

(113) धरा ज्योतिर्मय बनाएं!

रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /
प्रेम की बाती  पिरोकर  , बुझ रहे दीपक  जलाएं /

शान्ति का सन्देश ले , हर वर्ष आती दीपमाला ,
पर तिमिर घटता नहीं, मन में नहीं होता उजाला ,
इस तिमिर को तेल- घृत दीपक, मिटा सकते नहीं हैं,
मनुजता के दीप, फिर बंधुत्व के घृत से सजाएं  /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

व्योम से आकर धरा पर, खिल रहे हैं आज तारे ,
साथ मिलकर   एकता का ,  दे रहे सन्देश सारे  ,
सोचिये!क्या कह रहे ये,क्या समय की माँग इस क्षण,
कह रहे, मानव मनों की आपसी कटुता मिटायें /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

तैरते ये दीप जल पर, शान्ति की लय छेड़ते हैं ,
सौम्यता, सौहार्द से , वातावरण को जोड़ते हैं ,
सीख लें इनसे , सुह्र्द्ता , सौम्यता की,सरलता की ,
मित्रता के पुष्प , जीवन वाटिका में फिर खिलाएं /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

कुटिलता के गर्त से , हर व्यक्ति का चेहरा सना है,
कलुष का साम्राज्य है, संताप का कुहरा घना है ,
इस कुहासे को मिटाना ही, सभी का लक्ष्य हो अब ,
यूँ प्रज्वल्लित करें दीपक,धरा ज्योतिर्मय बनाएं!
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

                                -S. N. SHUKLA

Friday, October 21, 2011

( 112 ) गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !
स्वर्ग धरती के, फिर वे कहे जायेंगे  / 

पाल्या फिर कही जायेगी यह धरा ,
और नदियाँ , कही जायेंगी फिर वरा,
पूजे जायेंगे तरु, गुल्म, पादप, लता ,
उर्वरा अपनी उगलेगी , सोना हरा ,
जब प्रकृति की यहीं शेष होगी कृपा ,
शहर, गावों की उस दिन , शरण आयेंगे /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

पत्थरों के नगर, जब उबायेंगे , तब ,
चैन खोजेंगे सब , नीम की छाँव में,
गाँव में ही बहेगी प्रकृति की पवन,
चहचहायेंगे पक्षी भी , बस गाँव में ,
लोग, पिकनिक के ही तब बहाने सही,
गाँव में, शान्ति की खोज में आयेंगे /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

आम्र की मंजरी की, मधुर गंध जब,
मिल वसंती बहारों को महकाएगी ,
बौर, पल्लव, लता ओट ले कोकिला ,
मधुमयी तान में , गीत जब गायेगी ,
तितलियाँ सप्त रंगों की इठलायेंगी ,
जब भ्रमर, पुष्प गुच्छों पे मंडराएंगे / 
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

गाय- भैसें , यहीं शेष रह जायेंगी ,
दूध की आश्रिता होगी जब गाँव पर ,
 अन्न, फल, सब्जियाँ, गाँव उपजायेंगे ,
लहलहायेंगी फसलें, इसी ठाँव पर ,
आंका जाएगा , सच मूल्य तब गाँव का ,
ग्रामवासी , कहे देवता जायेंगे  /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

Wednesday, October 19, 2011

( 111 ) इस बार दिवाली में

 दिए जलाए जाते हैं , हर बार दिवाली पर   /
 ईर्ष्या- द्वेष जलाएंगे , इस बार दिवाली पर  /

मिलकर बांटेंगे आपस में, प्यार दिवाली पर ,
ढह जायेगी , नफ़रत की दीवार दिवाली पर /

भीतर-बाहर, घर-आँगन में   उजियारा होगा ,
जब दीपक दमकेंगे ,हर घर- द्वार दिवाली पर /

घर-घर में लक्ष्मी-गणेश का, आराधन होगा ,
और सजेंगे हर घर ,  बंदनवार दिवाली पर /

महानिशा !  के  अंधकार  को ,  दूर भगायेंगे ,
खुशियों की फिर से होगी , बौछार दिवाली पर /

सोच रहा हूँ , शायद उस दिन तुम भी आओगे ,
अपनी भी होंगी , फिर आँखें चार दिवाली पर  /


Monday, October 17, 2011

(110) आओ भुला दें गले मिलकर

माँ भारती की वेदना पर,   मिल विचारें फिर सभी /
आओ भुला दें गले मिलकर, आपसी कटुता अभी / 

हम हिन्दु , मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं,इंसान हैं,
हम एक थे, हम एक हैं ,  हम एकता  की शान हैं ,
फिर किसलिए यूँ लड़ रहे हैं ,   श्वान के जैसे सभी /
आओ भुला दें गले मिलकर, आपसी कटुता अभी / 

हम शत्रुओं की चाल में फंस , स्वयं टकराते रहे ,
अपना वतन ,  खुद दूसरों के हाथ   लुटवाते रहे ,
गत भूल जाओ , किन्तु आगत तो बना सकते अभी /
आओ भुला दें गले  मिलकर,   आपसी कटुता अभी / 

क्या मेह वर्षा से   कभी,  गिरिखंड टूटे हैं भला ?
इतिहास साक्षी है , जलाने जो हमें आया, जला .
अरि को मिटा देंगे , मगर हम मिट नहीं सकते कभी /
आओ भुला दें गले  मिलकर,   आपसी कटुता अभी / 

हम थे जगदगुरु, आज हैं , कल भी वही कहलायेंगे ,
जो चाहते   मेरा अहित , वे स्वयं ही   मिट जायेंगे ,
पर हम सभी में ऐक्य हो, बस मात्र यह संभव तभी /
आओ भुला दें गले मिलकर,  आपसी कटुता अभी / 

Friday, October 14, 2011

(109) सजना है हमें " करवा चौथ पर्व पर "

सजना के लिए, सजना  है हमें /

      प्रिय की हर बात पर,
      उनकी मुसकान पर,
      उनके  हर  गीत पर,
      उनकी  हर तान पर,
घुंघरुओं की तरह ,बजाना है हमें /
सजना के लिए ,  सजना  है हमें /

   आज वृत्त यह, सुहागन का पति के लिए,
   शास्त्र मत से - सुह्रद्ता, सुगति के लिए ,
    कामना ! दीर्घ हो आयु ,  पति प्रेम की ,
   पति के अनुराग, पति की सुमति के लिए ,
चाँद से भी अधिक, छजना है हमें /
सजना के  लिए ,  सजना  है हमें /    

    चाँद को देखकर ,   वृत्त को खोलूँगी मैं, 
    प्रिय से हर बात में, मधु को घोलूँगी मैं,
    चौथ करवा,   प्रिया वृत्त- पिया के लिए ,
    आज नव नेह पट, फिर से खोलूँगी मैं ,        
नव वधू की तरह, लजना है हमें /
सजना के लिए, सजना  है हमें /

    स्त्रियोचित प्रकृति ,गर्विता, मानिनी ,
    पति ह्रदय की रहूँ , मैं सदा स्वामिनी ,
    प्रेम के रंग  , जीवन में  धीमे न हों  ,
    मैं रहूँ भामिनी,उनकी अनुगामिनी  ,
दर्प को, दंभ को , तजना है हमें  /
सजना के लिए, सजना  है हमें /

Wednesday, October 12, 2011

(108) कभी तो रात जायेगी

कभी तो आयेगी  सुबह ,  कभी तो रात  जायेगी /
प्रकाश की किरण कभी तो,फिर से मुस्कुरायेगी  /

ये अन्धकार की निशा ,
मनोविकार की  निशा ,
विशाल भार सी निशा ,
दुरत पहाड़ सी  निशा  ,
हटेगी मार्ग  से कभी, कभी  तो   बीत जायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

दमक उठेगी हर गली ,
लगेगी   रोशनी भली ,
खिलेगी फिर कुसुम कली ,
पवन बहेगी मनचली ,
चहक उठेगी  कोकिला , हवा भी  गुनगुनायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

खुलेगी एक नयी डगर,
लगेगा गाँव भी  नगर ,
हर एक उदास होंठ पर,
खुशी की आयेगी लहर ,
हर एक खुशी भरा प्रहर , नियति तेरा बनायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

अगर न मन निराश हो ,
अगर  चुकी न आश हो ,
ह्रदय से   हार मान मत,
न मन   तेरा उदास  हो ,
तो फिर सुबह तेरे लिए ,   नया पयाम लायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

Monday, October 10, 2011

(107) चरित्र निर्माण प्रथम हो


तब  होगा  निर्माण राष्ट्र  का ,जब चरित्र  निर्माण प्रथम हो /
जाति- धर्म से ऊपर उठकर, प्रतिभा का सम्मान प्रथम हो /

आओ ! मातृभूमि की सेवा का , मिलकर संकल्प करें हम ,
अपनी भाषा- भूषा के प्रति , फिर आदर का भाव भरें हम ,
उत्कर्शों के शिखर चढ़ें पर, संस्कृति का उत्थान प्रथम हो /
तब होगा निर्माण राष्ट्र का ,जब  चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

पराधीनता  के  बंधन से ,  मुक्त हुए  छह  दशक  हो गए ,
पर गाँधी, सुभाष के सपने , स्वार्थ सिन्धु के बीच खो गए ,
उन सपनों को सच करने का , घर- घर में अभियान प्रथम हो /
तब होगा  निर्माण  राष्ट्र  का, जब  चरित्र   निर्माण  प्रथम  हो /

लोकतंत्र  के  सोपानों  पर, वर्ग  -  वर्ण  जैसी सीमाएं ,
बाधाओं के अग्निकुंड में, अब भी जलती हैं प्रतिभाएं ,
आवाहन तब करें देश का, जन- जन का आह्वान प्रथम हो /
तब होगा निर्माण  राष्ट्र  का, जब चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

स्वार्थ  साधना  में जनमानस ,  संवेदना  भुला  बैठा  है ,
निज प्रभुता के मद से गर्वित , मनुज स्वयम में ही ऐंठा है,
चढ़ें प्रगति सोपान स्वयम, पर औरों का भी ध्यान प्रथम हो /
तब होगा  निर्माण  राष्ट्र  का, जब चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

Friday, October 7, 2011

(106) नफ़रत न घोलिये /


अहले खुदा   की  राह में  ,  नफ़रत  न  घोलिये /
एहसास-ए-रंज -ओ-गम , न तराजू से तोलिये /

खुद !  काँच के मकान में , बैठे हुए हैं जब,
औरों के लिए , हाथ में पत्थर न तोलिये /

गीता हो, बाइबिल हो या गुरुग्रंथ हो , कुरान ,
सबके  उसूल  एक  ,  ज़रा  वर्क  खोलिए /

कौमों की सियासत में मुल्क झोंकने वालों ,
ये लफ्ज़ हैं हरजाई , संभलकर के बोलिए  /

वे ज़ख्म पुराने ही , अभी तक नहीं भरे ,
मरहम न दे सकें , तो उन्हें यूँ न खोलिए / 

Wednesday, October 5, 2011

(105) बुझने न पायें

रोशनी के चंद   दीपक ही सही , बुझने न पायें /
चित्र धूमिल ही सही सौहार्द के, मिटने न पायें /

जो मशालें ले  तमस से लड़ रहे , उनको सराहो ,
और जो उनकी हिमायत में खड़े, उनको सराहो ,
दर्द जो औरों का खुद में पालते , वे कम बहुत हैं,
शक्ति दो उनको समर्थन की, रहें जलतीं शमाएँ /
रोशनी के चंद दीपक   ही सही ,  बुझने न पायें /

मानता  हूँ  !  शक्तिशाली हैं ,  उजालों के लुटेरे ,
मानता,  सच को ढके हैं , झूठ के बादल घनेरे ,
फिर उठाओ आंधियाँ, इन बादलों को ठोकरें दो ,
सत, असत पर, न्याय को अन्याय पर विजयी बनाएं /
रोशनी  के   चंद दीपक  ही सही ,   बुझने  न  पायें /

देश के  स्वाधीन   होते  हुए भी  , ग़मगीन  हो  तुम ,
सोचिये ! मतदान के अतिरिक्त कितना दीन हो तुम ,
लोक के  इस  तंत्र  पर ,   काबिज़  लुटेरे   हो चुके हैं ,
मुक्ति का  उसकी करें   सदुपाय , आओ मन बनाएं /
रोशनी के   चंद दीपक  ही सही ,  बुझने   न  पायें /

इस प्रजा के तंत्र में , तुम स्वयं अधिपति हो स्वयं के ,
इसलिए  !  अन्याय को ललकार दो प्रतिकार बन के ,
जो   तुम्हारे   ही दिए  टुकड़ों पे पल   ,  गुर्रा  रहे  हैं ,
दो उन्हें  दुत्कार   , उनके    हौसले   बढ़ने न पायें /
रोशनी के  चंद   दीपक  ही सही ,   बुझने न  पायें /


Saturday, October 1, 2011

(104) चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और यशस्वी प्रधानमंत्री रहे स्व. लालबहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए स्वाधीन भारत के बारे में उनके द्वारा देखे गए स्वप्न स्वतः स्मृति पटल पर उभर आते हैं / आज के भारत जैसा भारत तो नहीं चाहा था उन्ह्नोने ---------------


बलिदानी गाथाओं के स्वर , अनचाहा संगीत हो गए /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए /

तब सोचा था ,त्याग-तपस्या का प्रतिफल कुछ नया मिलेगा ,
आज़ादी  के   गगनांगन   में , देश - प्रेम   का   सूर्य   उगेगा ,
बापू  के  सपनों  के  भारत  में ,  फिर  होगा  नया   उजाला ,
त्रेता युग आयेगा  फिर  से ,  हर चेहरे  पर कमल  खिलेगा  ,
रामराज्य के स्वर्णिम सपने , ज्यों बालू की भीत हो गए /
आज हमारी  आज़ादी को , चौंसठ वर्ष  व्यतीत  हो गए /

जनसेवक का बाना पहने ,  सरकारों  में घुसे  लुटेरे ,
न्याय व्यवस्था पंगु हो गयी ,पहले से बढ़ गए अँधेरे ,
वर्ग,जाति की दीवारों से ,  नेताओं ने सबको बांटा ,
बाहुबली - अपराधकर्मियों ने डाले शासन पर घेरे ,
शत्रु हुए अपने , अपनों के , हम खुद से भयभीत हो गए /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ  वर्ष  व्यतीत हो गए /

किससे करें शिकायत किसकी , घर को   घरवालों ने लूटा ,
स्वार्थ साधनारत जनसेवक , जन सुख-दुःख से नाता टूटा ,
मत बिकते, मतदाता बिकते , बिकते पद , बिकती सरकारें ,
धनबल, जनबल से भय खाकर , सच्चा भी बन जाता झूठा ,
अर्धशतक में ही भारत के , गृह फिर से विपरीत हो गए  /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए /

जाति - धर्म की बलिवेदी पर , औसत सौ  प्रतिदिन हत्याएं ,
लूट , डकैती ,व्यभिचारों की,  हर दिन अगणित नयी कथाएं ,
तथाकथित जनप्रतिनिधि- प्रहरी , आग लगाकर हाथ सेकते ,
अनाचार,  अन्याय ,  अराजकता , अनीति   लाघीं  सीमाएं ,
शान्ति, प्रेम ,सहयोग ,सुह्र्दता , परदेशी की प्रीती हो गए /
आज  हमारी आज़ादी को ,  चौंसठ  वर्ष  व्यतीत  हो गए /

Wednesday, September 28, 2011

(103) कौन किसके लिए जिया

तुमने जो भी सिला दिया यारों ,
हमने शिकवा कहाँ किया यारों ?

मर तो सकता है किसी पर कोई ,
कौन किसके लिए जिया यारों ?

दो कदम साथ चले भी तो बहुत ,
कद्रदानी का शुक्रिया यारों /

जख्म देना जहाँ की फितरत है ,
जिसने जो भी दिया , लिया यारों /

अब तो रूख्सत के वक़्त माफ़ करो ,
छोड़ दो मुझको , तखलिया यारों /

कौन किसके लिए ---जिया यारों //




Monday, September 26, 2011

(102 ) कौन हूँ मैं ?

कौन हूँ मैं , जानता खुद भी नहीं, पर जानता हूँ ,
मैं जलधि के ज्वार सा, आवेग सा, आक्रोश सा हूँ /

मैं कृषक का, मैं श्रमिक का, मैं वणिक का, मैं लिपिक का ,
वृद्ध, बालक,  नारि - नर , तरुणाइयों का जोश सा हूँ  /

सूर्य का सा ताप हूँ मैं, धधकता ज्वालामुखी हूँ ,
मैं हलाहल , मैं गरल , जनवेदना का रोष सा हूँ /

मूक की आवाज हूँ मैं, आर्त की चीत्कार हूँ मैं,
जो गगन को भेद दे , उस घोष उस उद्घोष सा हूँ /

और अंतिम छोर वाले आदमी की वेदना का ,
क्रोध हूँ, आवेश हूँ, संवेदना का कोष सा हूँ  /

मैं विवादी हूँ, प्रलापक हूँ , ये हैं आरोप मुझ पर,
नाम कुछ भी दे कोई, कवि ह्रदय का आक्रोश सा हूँ /

Saturday, September 24, 2011

(101) मैं ही आधार हूँ

मैं स्रजन, मैं अगन , मैं धरा , मैं गगन,
मैं प्रकृति , मैं नियति, मैं ही सहकार हूँ /
मैं प्रभा, मैं किरन, मैं विरल, मैं सघन ,
सूर्य  की रश्मियों  का ,  मैं  साकार हूँ  /

मैं समय, मैं अवधि ,वारि मैं , मैं जलधि ,
मैं ही ,  नद - नद्य  का  लेता  आकार  हूँ /
क्रोध मैं , मैं  विनय , घ्राण मैं, मैं ह्रदय ,
पञ्च  भूतों  में ,  मैं  सृष्टि  साकार  हूँ /

मैं जगत , जीव , जड़ और चैतन्य में ,
ईर्ष्या - द्वेष   मैं   प्यार - मनुहार हूँ  /
यज्ञ मैं , विज्ञ मैं  , ज्ञान - विज्ञान मैं,
तत्त्व , दर्शन भी मैं , शब्द ओंकार हूँ /

सारे साधन मेरे , एक मैं साध्य हूँ  ,
सृष्टि साकार में,  मैं  निराकार हूँ  /
मेरा कुछ नाम दे, एक कर्ता हूँ मैं ,
मैं ही कर्तव्य हूँ , मैं ही अधिकार हूँ /

धर्म की आड़ ले , बाटते जो मुझे ,
वे गुनहगार हैं, धूर्त - मक्कार हैं/
मैं ही मंदिर हूँ, मस्जिद , शिवाला भी मैं ,
मैं गिरिजाघरों का भी आधार हूँ  /



Thursday, September 15, 2011

( 100 वीं पोस्ट ) कुछ बनना, कायर मत बनना

मेरी   १०० वीं पोस्ट 
**************
     ब्लॉग पर यह मेरी १००वीं प्रविष्टि है / अच्छा या बुरा , पहला शतक ! मैं अपने हर समर्थक, शुभचिंतक तथा पाठक से , अपनी अब तक की " काव्य यात्रा " पर बेबाक प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता हूँ / यदि मेरे प्रयास में कोई त्रुटियाँ हैं,तो उनसे भी अवश्य अवगत कराएं , आपका हर फैसला शिरोधार्य होगा . साभार  - एस . एन . शुक्ल
कुछ बनना, कायर मत बनना, अंतिम विजय तुम्हारी होगी/
अगर पराजय  भी हो , तो क्या ,  कल फिर से  तैयारी होगी / 

 बिना लड़े मत कभी पराजय स्वीकारो , यह ठानो मन में ,
 लड़ो !  और लड़कर हारो भी , तो  संतोष  रहेगा  मन  में , 
 ऐसी हार , हार तो होगी , लेकिन एक - दम न्यारी होगी / 
कुछ बनना, कायर मत बनना, अंतिम विजय तुम्हारी होगी/

 शत्रु प्रबल कितना भी हो , पर मरने से वह भी डरता है ,
  सीधे सींगों वाले पशु का , कौन सामना कब करता  है ,
   तूफानी  हर लहर सदा , चट्टानों से  लड़  हारी होगी /
कुछ बनना, कायर मत बनना, अंतिम विजय तुम्हारी होगी/

पीछे रह  ललकार  लगाने  वाला , युद्ध  नहीं लड़  सकता ,
जिसकी निष्ठा अविश्वस्त हो , वह नेतृत्व नहीं कर सकता,
जो खुद में  भयभीत , भला उसमें  कितनी   खुद्दारी होगी  /
कुछ बनना, कायर मत बनना, अंतिम विजय तुम्हारी होगी/













Monday, September 12, 2011

(99 ) वर्षों तक

उम्र भर साथ निभाने का था वादा कोई ,
 उसी करार में हम, जीते रहे वर्षों  तक /

तल्ख़ झोंको से लरजती हुयी चादर अपनी ,
सहेजते   भी  रहे ,  सीते रहे   वर्षों तक  /

सामने लोग मेरे , मुझसे खुद को भरते रहे ,
और  हम बहते रहे , रीते रहे   वर्षों  तक  / 

 फब्तियों  का  भी , एक दौर सहा है मैंने  ,
 ज़हर के घूँट भी , हम पीते रहे वर्षों तक /

 वे जो अकल में थे , पासंग भर नहीं मेरे-
 कभी उनसे भी , गए-बीते  रहे  वर्षों तक / 

 वक्त जो कुछ न कराये , वो समझो थोड़ा है,
  ये मान, सहते रहे , जीते  रहे वर्षों तक  /














Thursday, September 8, 2011

(98) इस अँधियारे में

रहबर के बाने में रहजन , देश दहारे में ,
आशाएं हम  खोज रहे हैं,इस अँधियारे में /

कल के बड़े हादसे में, किस घर का कौन गया ?
एक अजब सन्नाटा है, हर घर -चौबारे में /

दहशत ले , वापस लौटे थे , कल स्कूलों से ,
अब वे बच्चे पूछ रहे हैं, कल के बारे में /

सब पर बीत रही एक जैसी , फिर भी एक नहीं ,
बटे हुए कौम-ओ -मजहब के, लोग दयारे में /

शहर सभ्यता के मानक थे , अब वह बात कहाँ ,
एक नयी दुनिया बसती , इस पत्थर - गारे में /

घुटकर चीखें अन्दर की अन्दर रह जाती हैं ,
तूती की आवाज कौन सुनता नक्कारे में ?

Sunday, September 4, 2011

{97} न जाने क्यों ?

न जाने क्यों शहर ये आज ग़मज़दा , उदास है 
न जाने कौन सी , चुभी हुई दिलों में फाँस है

न जाने कौन खौफ से , हैं लोग यूँ  डरे हुए 
न जाने क्यों , ये घुचघुचे से आँख में भरे हुए

न जाने कौन सा यहाँ , कहाँ हुआ बवाल है
न जाने क्यों हर एक आँख में यहाँ सवाल है

न जाने क्या जला , कहाँ , ये गंध क्यों जली-जली
न जाने कैसी राख , उड़ रही यहाँ गली-गली

सुना है कल , सियासती हुजूम था इसी शहर
उसी हुजूम ने शहर में ढाया इस कदर कहर 

छुरे, कटार, बम चले, कहीं पे गोलियाँ चलीं 
धधकने लग गया शहर, लहू बहा गली-गली

ये क्या हुआ, ये क्यों हुआ ,किसी को कुछ पता नहीं 
किसी से पूछिए , तो बोलता है  बस ' न जाने क्यों '

न जाने क्यों ?न जाने क्यों ?न जाने क्यों ?न जाने क्यों ?

Saturday, August 27, 2011

(96) उजाड़ की तरह

कल के उजाड़, आज हैं बहार की तरह
और हम उजाड़ से अधिक उजाड़ की तरह.

वो सिर उठाये, आलीशान ताजमहल हैं.
हम हैं उखड चुकी, किसी मजार की तरह.

वो शीश महल में सजे, फैशन की ज्यों दुकान,
हम हैं किसी उजड़ी हुई बाज़ार की तरह.

वो पालकी में बैठे किसी राजकुंवर से,
हम पालकी लिए हुए कहार की तरह.

मसनद पे जमे हैं, वो किसी साहूकार से,
राशन दुकान वाली, हम कतार की तरह.

उनके-हमारे बीच में अंतर बहुत बड़ा ,
चाबी खजाने की वो, हम उधार की तरह.

Monday, August 22, 2011

(95) फिर मुनादी बज रही है

फिर मुनादी बज रही है
फिर बुलावा आ रहा है
 देश का इतिहास ,
  फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
और हर एक शख्स-
दीवानों के जैसा ,
  एक तिहत्तर वर्ष के बूढ़े के पीछे-
 और उसके पक्ष में
  सडकों पे बांधे मुट्ठियाँ लहरा रहा है /
बच्चों, बूढ़ों ,नौजवानों में-
 अजब आक्रोश सा है /
  और नारी वर्ग में भी-
   कुछ गजब का जोश सा है / 
 कांपती , कमजोर सी आवाज में-
 बूढ़ा वो सच कहने लगा है /
  और उस सच की धमक से - 
    देश की सरकार का मजबूत सा दिखता किला-
  ढहने लगा है /
 फिर वही छत्तीस बरस पहले घटी -
जैसी कहानी /
  फिर वही आक्रोश-
  युवकों में वही दिखती रवानी / 
    और फिर सरकार का वैसा ही हठ,
 जैसा कि तब था / 
    फिर वही सच को दबाने की-
नयी पुरजोर साजिश,
  फिर कुतर्कों की वही-
   सरकार की झूठी कहानी /
  बादशा का हर चहेता -
     सच से फिर कतरा रहा है /
देश का इतिहास
फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
---------------------------
 उस समय भी -
     एक बूढ़े ने ही कड़वा सच कहा था /
  आज फिर से -
        एक बूढ़ा ही वो सच दुहरा रहा है /
   झूठ की बुनियाद , तब भी थी हिली -
  फिर हिल रही है /
    झूठ को फिर से चुनौती -
   सत्यता से मिल रही है /
  और सत्ता के वे प्यादे -
जो मलाई खा रहे हैं /
    झूठ को ही सच बताकर -
   सत्य को झुठला रहे हैं /

 तर्क देते हैं वे -
   बहसी और विवादी है ये बूढ़ा /
नित नए तूफाँ-
    खड़े करने का आदी है ये बूढ़ा /
 यह है जादूगर -
 न इसके जाल में फंसना- फंसाना /
  स्वार्थी है यह -
   न इसके व्यर्थ बहकावे में आना /
  लाठियां दिखला रहे हैं-
   घुड़कियाँ भी दे रहे हैं /
  वर्दियों का रौब दिखला-
    धमकियाँ भी दे रहे हैं /
   किन्तु यह आक्रोश जो -
    सड़कों पे मुखरित हो रहा है /
  लाख बाड़ों और बांधों से -
  कहाँ अब थम रहा है /
   हर नए दिन, भीड़ का -
  सैलाब बढ़ता जा रहा है /
देश का इतिहास
फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
---------------------------

काश ! इन अंधों व बहरों में -
तनिक सद्ज्ञान होता /
    स्वार्थ के अतिरिक्त भी कुछ है-
  तनिक संज्ञान होता /
  काश ! वे पाते समझ -
  इन्सान को, इन्सानियत को /
   काश ! वे ढाते न -
  जेरो- जुल्म को , हैवानियत को /
    काश ! वे इस देश के प्रति -
  तनिक सा हमदर्द होते /
    काश ! वे इन्सान होते-
    काश ! वे भी मर्द होते /

   सामना करते वे सच का-
  मिनमिनाते स्वर न होते /
   काश ! जन-गण की व्यथा वे समझते -
  कायर न होते /
तो भला क्यों -
 एक बूढ़ा आदमी यूँ बौखलाता /
    क्यों भला वह देश भर में -
 चेतना की लौ जगाता /
आइये हम सब -
 समर्थन में जुटें , सबको जुटाएं /
 बदगुमानों , बदजुबानों से-
वतन अपना बचाएं /
 देश जागो, लोक जागो,
   नव सवेरा हो रहा है /
देश का इतिहास
  फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /

Friday, August 19, 2011

(94) नारी

बचपन में भी नहीं था अन्य बच्चों जैसी उन्मुक्तता का अधिकार,
और कैशोर्य?
माता-पिता से लेकर सारे बड़ों की
घूरती-टोकती सी निगाहें 
हर कदम पर टोका-टोकी .
फिर आई तरुणाई.
ऐसे मानो अभिशाप बनकर आई.
अपनी  इच्छा से कहीं आने-जाने की,
अपने मन का कुछ भी करने की,
छूट नहीं, पूरी पाबन्दी !
उफ्फ!
हर तरफ बदन को टटोलती- घूरती निगाहें ,
जिनमें अपनेपन से अधिक वासना की चाह ,
सच-
किसी युवती के लिए कितनी कंकरीली-पथरीली राह?
फिर विवाह-
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय.
लेकिन इस मामले में भी लड़की जैसे गाय.
चाहे जिस खूटे से बाँध देना 
कोई नहीं जानना चाहता उसकी इच्छा 
किसी अनजान के हाथों अपना सारा जीवन 
अपना स्वत्व , अस्तित्व और भविष्य 
सौंपने को विवश,
फिर वहां पितृगृह से भी अधिक पाबंदियां .
जीवन साथी का प्यार-मनुहार कितने दिन ?
फिर संतानों का प्रजनन 
उनका पालन-पोषण 
ममत्व भी, दायित्व भी.
जननी और पाल्या,
गृह लक्ष्मी,
गृह स्वामिनी ,
पति की अर्धांगिनी 
कितने सारे विशेषणों के आभूषण .
किन्तु क्या, कभी किसी ने पढ़ा नारी का मन?
जहां जन्मी-
उससे पृथक हो जाना उसकी नियति है .
जिसे जीवन सौंपा -
वह स्वामी पहले है, बाद में पति है.
जिन्हें जन्म देने, पालने-पोषने में.
अपना यौवन सुख बलिदान कर दिया 
वे भी कब हो पाते हैं उसके ?
नारी जीवन की यह कैसी गति है.
उसकी एक भी भूल कभी क्षमा नहीं की गयी 
आदि काल से नारी जीवन की यही कहानी है.
किन्तु उसकी पीड़ा किसने जानी है?

Sunday, August 14, 2011

(93) आप क्या करेंगे जगदीश्वर ?

पति शब्द पर पुरुष का एकाधिकार समाप्त 
अब महिला भी हो सकती है पति
आश्चर्य क्यों?
देखिये ! भारत की राष्ट्रपति महिला हैं.
देश के संविधान में-
सबको समान अधिकार प्राप्त है.
भाषा, भूषा और लिंग का भेद पूरी तरह समाप्त है.
बात यहीं तक सीमित नहीं,
अब महिला भी बन सकती है पति .
और पुरुष बन सकता है पत्नी.
यह हम नहीं अदालत कहती है.
जहां प्रकृति नियंता ईश्वर की आत्मा रहती है?
अब देश के कानून में-
समलैंगिक यौन संबंधों के खिलाफ कोई धारा नहीं है.
आप लाख भारतीय संस्कृति की दुहाई दें-
लेकिन आपके पास इसे रोक पाने का कोई चारा नहीं है.
हाँ ऐसे संबंधों में आपसी सहमति अनिवार्य है.
फिर क़ानून को भी ऐसा रिश्ता स्वीकार्य है.
पहले केवल औरत जनती थी बच्चा 
लेकिन अब पुरुष भी ऐसा कर रहे हैं.
वे अपनी कोख में पाल, बच्चा जन रहे हैं.
पुरुष, पुरुष के साथ विवाह करने लगे  हैं
और महिलाएं, महिलाओं के साथ
हे प्रकृति नियंता!
दुनिया ने आपके बनाए कानून बदल डाले
अब आदमी खुद अपना नियंता बन गया है.
अब वह खुद बन रहा है ईश्वर.
फिर आप क्या करेंगे जगदीश्वर?

Friday, August 12, 2011

( 92 ) चेहरे हैं मक्कारों के

सड़कें नाम हुईं कारों के, फुटपाथें बाज़ारों के
जंगल वे जंगल विभाग के, जोत-खेत सरकारों के
दफ्तर, अफसर - बाबू घेरे, जहां दलाली आम हुई
पुलिस सड़क पर करे वसूली, थाने थानेदारों के .

नदियाँ , तीरथ , घाट पुजाऊ पंडों की जागीर हुए 
मंदिर-मंदिर जमें पुजारी, दोनों हाथों लूट रहे 
बस भाड़े में जेब कट रही, रिश्ते-नाते दूर हुए
जो कुछ बाकी बचा, छिपाते नज़रों से बटमारों के.

राजनीति में काबिज गुंडे, सरकारों में बैठे चोर
शासन में भी हेरा-फेरी करने वालों का ही जोर
अस्पताल दल्लों के हाथों, डॉक्टर चांदी काट रहे
भरी आदालत वादी लुटते, मौज-मजे बदकारों के.

धरना, रैली और प्रदर्शन पर लाठी की मार पड़े 
टुकुर-टुकर हम ताकें यह सब, चौराहे पर खड़े -खड़े 
बोलो मालिक कहाँ जायं अब, किससे हम फ़रियाद करें 
जिधर उठाकर नज़रें देखो , चेहरे हैं मक्कारों के.


Wednesday, August 10, 2011

(91) मायावी दानव

वे दादी-नानी की काल्पनिक कहानियां 
मायावी दानव और उसका तिलिस्म 
जो अपने विरोधियों को पत्थर बना देता था 
किसी राजकुमारी को अपहृत कर बंदी बना लेता था
उससे जो भी टकराता .
वह या तो मारा जाता-
या पत्थर का हो जाता
उसने जाने कितनी  गर्दनों को कतरा .
जाने कितनों  को बनाया भेड़ा -बकरा 
उसे वर्षों तक कोई हरा नहीं पाया 
क्योंकि उसकी आत्मा -
उसके प्राणों का रहस्य कोई नहीं खोज पाया .
फिर किसी तरह भेद खुला ,
कि दानव की आत्मा -
पिंजरे में बंद तोते में कैद है .
जब वह तोता मरेगा-
तो दानव भी निर्जीव हो जायेगा 
सात तालों में बंद तोता
अभेद्य सुरक्षा तंत्र से घिरा तोता
तिलिस्मी चक्रव्यूह में कैद तोता
और उस तोते में बसी दानव आत्मा
जहाँ न पहुंचना आसान था
और न तोते को मार पाना .
फिर एक राजकुमार का दृढ निश्चय
और उसका मार्ग प्रशस्त करने वाला फकीर
उसने राह दिखाई ,
राजकुमार को तिलिस्मी अंगूठी पहनाई .
अब वह अदृश्य हो सकता था.
सुरक्षा घेरे को भेद तोते तक पहुँच सकता था.
यह संभव हुआ -
राजकुमार ने तोते की गर्दन मरोड़ी
और दानव धराशाई हो गया .

आज देश में बहुत सारे दानव हैं
उनहोंने भी लोकतंत्र की राजकुमारी को कैद कर रखा है.
तोतों में नहीं-
विदेशी बैंकों के रहस्यमय खातों में.
देश को किसी राजकुमार, किसी फ़कीर का इंतज़ार है
क्या कोई राजकुमार आएगा ?
कोई फ़कीर उसे मार्ग दिखायेगा ?
वह भेदेगा रहस्य को ?
पहुँच सकेगा उन बैंक खातों तक?
और यह देश-
देश का लोकतंत्र दानवों के आधिपत्य से मुक्त हो पायेगा ?