अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मै हूँ अजेय.
हर बाधा से गलबहियां कीं, पर किंचित छोड़ा नहीं ध्येय .झंझावातों में लिया जन्म, शैतानों से लड़ कर आया
आंधी ने लोरी दी मुझको, तूफां ने छूकर दुलराया
सूरज की तपती गोदी में, मैं हंसा और किलकारी ली
मैं दावानल, मैं शेषनाग, मैं रामानुज, मैं सुमित्रेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय .
कुछ बड़ा हुआ चलना सीखा, घर आँगन से बाहर आया
हर ओर स्वार्थ, लिप्सा प्रपंच में, सारा जग लिपटा पाया
हर पग पर ठोकर और शूल ने, बढ़ मेरी अगवानी की
मैंने गाये वे गीत सदा, जो जनमानस को थे अगेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
बचपन से आगे यौवन में, थीं विकट समस्याएं अनंत
लहराते सागर सा पथ था, न ओर-छोर, न आदि-अंत
पथ हीन बियाबानों में भी, मैने जीवन को नवगति दी
रचना, उत्पत्ति, सिद्ध करना, पाइथागोरस की ज्यों प्रमेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
मैंने पाषणों को तोला, पर्वत शिखरों को कुचल दिया
दुर्गम पथ पर आगे बढ़कर, शूलों को कर से मसल दिया
तपती रेती के ढेरों से, फिर मैंने भी मनमानी की
विष प्याला मैंने अपनाया, तजकर पियूष सा मधुर पेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
उस बया और उस चींटी को, उस मकड़ी को, उस पानी को
उस कालिदास, उस तुलसी को, उस गाँधी, झाँसी रानी को
अपना आदर्श मानकर मैंने, जीवन भर कुर्बानी दी
मैंने उनको प्रेरक माना, जो औरों के हित रहे हेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
मैं डिगा कर्म पथ से न कभी, अपने मन पर यह नहीं भार
अस्सी घावों की क्या गणना, मैंने तो अगणित सहे वार
मैं आत्मतुष्ट हूँ इससे क्या, यदि जग ने कदर न जानी थी
प्रासाद, कनक, कंचन तो क्या, मैंने पाया जो था अदेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
मैं टूट गया पर झुका नहीं, सौ बार गिरा पर रुका नहीं
जीवन को माना युद्ध एक, बस विजय प्राप्ति ही रही टेक
गिरना, उठना, उठकर लड़ना, बस अपनी यही कहानी थी
कर्तव्य चाप पर मैंने भी, संधाना हर शर को सध्येय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
कोई माने या न माने, लेकिन मैं अविजित योद्धा हूँ
संघर्ष मार्ग का अनुयायी, मैं अप्रतिम, अभय पुरोधा हूँ
उन मूल्यों, उन आदर्शों पर, मैंने बलिदान जवानी की
अपनी उस त्याग, तपस्या का, औरों को देता रहा श्रेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.
बनवास और अज्ञातवास, मेरे जीवन में भी आये
जाने कितने शकुनी मामा, दुर्योधन मुझसे टकराए
लाक्षागृह और महाभारत की, मैंने भी अगवानी की
हर बाधा को हंसकर झेला, मैं हूँ इस युग का कौन्तेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.