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Editor "LAUHSTAMBH" Published form NCR.

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Monday, March 28, 2011

(6) मैं हूँ अजेय

अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मै हूँ अजेय.
हर बाधा से गलबहियां कीं, पर किंचित छोड़ा नहीं ध्येय .

झंझावातों में लिया जन्म, शैतानों से लड़ कर आया
आंधी ने लोरी दी मुझको, तूफां ने छूकर दुलराया
सूरज की तपती गोदी में, मैं हंसा और किलकारी ली
मैं दावानल, मैं शेषनाग, मैं रामानुज, मैं सुमित्रेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय .

कुछ बड़ा हुआ चलना सीखा, घर आँगन से बाहर आया
हर ओर स्वार्थ, लिप्सा प्रपंच में, सारा जग लिपटा पाया
हर पग पर ठोकर और शूल ने, बढ़ मेरी अगवानी की
मैंने गाये वे  गीत सदा, जो जनमानस  को थे अगेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

बचपन से आगे यौवन में, थीं विकट समस्याएं अनंत
लहराते सागर सा पथ था, न ओर-छोर, न आदि-अंत
पथ हीन बियाबानों में भी, मैने जीवन को नवगति दी
रचना, उत्पत्ति, सिद्ध करना, पाइथागोरस की ज्यों प्रमेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

मैंने पाषणों को तोला, पर्वत शिखरों को कुचल दिया
दुर्गम पथ पर आगे बढ़कर, शूलों को कर से मसल दिया
तपती रेती के ढेरों से, फिर मैंने भी मनमानी की
विष प्याला मैंने अपनाया, तजकर पियूष सा मधुर पेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

उस बया और उस चींटी को, उस मकड़ी को, उस पानी को
उस कालिदास, उस तुलसी को, उस गाँधी, झाँसी रानी को 
अपना आदर्श मानकर मैंने, जीवन भर कुर्बानी दी
मैंने उनको प्रेरक माना, जो औरों के हित रहे हेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

मैं डिगा कर्म पथ से न कभी, अपने मन पर यह नहीं भार
अस्सी घावों की क्या गणना, मैंने तो अगणित सहे वार
मैं आत्मतुष्ट हूँ इससे क्या, यदि जग ने कदर न जानी थी
प्रासाद, कनक, कंचन तो क्या, मैंने पाया जो था अदेय

अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

मैं टूट गया पर झुका नहीं, सौ बार गिरा पर रुका नहीं
जीवन को माना युद्ध एक, बस विजय प्राप्ति ही रही टेक
गिरना, उठना, उठकर लड़ना, बस अपनी यही कहानी थी
कर्तव्य चाप पर मैंने भी, संधाना हर शर को सध्येय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

कोई माने या न माने, लेकिन मैं अविजित योद्धा हूँ 
संघर्ष मार्ग का अनुयायी, मैं अप्रतिम, अभय पुरोधा हूँ
उन मूल्यों, उन आदर्शों पर, मैंने बलिदान जवानी की
अपनी उस त्याग, तपस्या का, औरों को देता रहा श्रेय
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.

बनवास और अज्ञातवास, मेरे जीवन में भी आये 
जाने कितने शकुनी मामा, दुर्योधन मुझसे टकराए
लाक्षागृह  और महाभारत की, मैंने भी अगवानी की 
हर बाधा को हंसकर झेला, मैं हूँ इस युग का कौन्तेय 
अब तक न जीत पाया कोई, मेरे मन को मैं हूँ अजेय.  

Wednesday, March 23, 2011

(5) मैं भयभीत नहीं हूँ कल से

मैंने कल को देखा था कल 
मैं भयभीत नहीं हूँ कल से 
किंचित नहीं मुझे चिता है 
कल के आने वाले पल से .

कल के पीछे भाग रहा जो 
उसने अपना आज गंवाया 
मृग मरीचिका  की आशा में 
दौड़ रहा पर पकड न पाया .

आँख खुली था आज सामने 
कल न कभी आया, आएगा 
आज निकल जायेगा कर  से 
हाथ  मसल कर पछतायेगा .

आज हमारे हांथों में है 
आओ इसको सुखद बनायें 
खुशहाली लायें जीवन में 
श्रम से, बल से और अकल से.

मैंने कल को देखा था कल 
मैं भयभीत नहीं हूँ कल से 


Sunday, March 6, 2011

(4) यह कैसा गणतंत्र

भारतीय गणतंत्र के तीनों अंग, गांधीजी के तीन बंदरों का दल है
एक चलने , दूसरा सुनने,
 तीसरा देखने में असमर्थ !
 इतना रद-ओ-बदल है .
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इस देश में एक विधायिका है,
जहाँ आये दिन, एक-दूसरे की टांग खिची जाती है
इसकी फसल
विभिन्न विचारधारा के दलों द्वारा सिंची  जाती है
यहाँ प्रायः सरकार लंगड़ी (अल्प मत ) बनती है,
इसीलिए बैसाखी देने वालों की रबड़ी छनती है
यह भारतीय लोकतंत्र का राज है,
की सरकर दूसरों के सहारे की मोहताज है . 
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इस देश में एक कार्यपालिका भी है
जो कामचोर कर्मचारियों और नौकरशाहों की चेरी है . 
फलस्वरूप
हर कार्यपालन में होती अनावश्यक देरी है . 
यह सुनती कम है, सदा अपने मन की करती है,
और देश की व्यवस्था  का
अभिन्न अंग होने का दम भरती है .
इन्हीं  के बलबूते देश का सारा प्रशासनिक कामकाज  है,
यहाँ जननायकों का नहीं नौकरशाहों का राज है .
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इस देश में न्यायपालिका भी है,
जो संवैधानिक स्तर पर पूर्णतः स्वतन्त्र है
किन्तु न्याय प्रक्रिया में ,
न कहीं स्वा है और न कहीं तंत्र है .
भारतीय न्यायव्यवस्था
अधिवक्ताओं की तर्कों पर पलती   है,
न्याय की देवी भी
अब लक्ष्मी के वहां पर चलती है . 
यह देखती कम है सुनती ज्यादा है ,
इसीलिय हर तीसरा आदमी-
 अपराध करने पर आमादा है .
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इस देश में अभी जनता भी है,
जो गूंगी और मतदाता के रूप में जानी जाती है .
इसकी कीमत-
केवल चुनाव के समय ही पहचानी जाती है .
इसे हर पाँच वर्ष बाद 
आश्वासन रुपी फल मिलता है,
और इसके भोलेपन को
हर खददरधारी छलता है .
यहाँ चाटुकारों, दलालों, जमाखोरों
और नौकरशाहों की चाँदी है,
यह बात अलग है कि-
देश में जनतंत्र है, पूरी आज़ादी है .
यह गूंगों , बहरों ,अंधों और लंगड़ों का देश है ,
और देश के नाम पर-
ज़मीन जंगल तथा लक्ष्यहीन भीड़ शेष है .

(3) गांव

पचास वर्ष पूर्व
होली से ईद तक
क्रिसमस से बैसाखी तक
घर खेत और खलिहान तक
हिन्दू,सिख ,ईसाई और मुसलमान तक
एक अनोखा ,अनूठा साम्य था 
भारत में अद्वितीय जीवन का ग्राम्य था .
किन्तु आज 
लोग एक दूसरों के त्यौहारों से कटते हैं 
होली और ईद पर दिल का मैल नहीं
बम फटते हैं .
लोगों को सौहार्द के बजाय
संक्रीनता के अशलील जुमले रह गए हैं 
हम सभी धर्म, संप्रदाय, जाति और उपजाति में बंट गए हैं .
अब दिलों में -
ईष्र्या की पीड़ा द्वेष के नासूर , नफरत और फिरकापरस्ती के घाव हैं 
ये हमारे वर्तमान भारत के प्रगतिशील गाँव हैं .

Saturday, March 5, 2011

(2) सूना-सूना सा लगता है.

गति हो पर उत्कर्ष न हो तो, सूना-सूना लगता है
जीवन में संघर्ष न हो तो, सूना-सूना सा लगता है.
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जहाँ व्यक्ति की गुरुता को बस, पैसे से तौला जाता हो
सेवा या बलिदान, त्याग को पागलपन बोला जाता हो
निर्णय में आदेश जहाँ हो, जब भेड़ों की गति चलना हो
और विचार विमर्श न हो तो सूना सूना सा  लगता है .
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जहाँ स्वार्थ के, झूठे रिश्ते, जहाँ सिर्फ मतलब के नाते 
जहाँ पीठ पीछे निंदा हो, और सामने  सब गुण गाते 
जहाँ स्नेह सम्मान प्रदर्शन के पीछे भी कुटिल भाव हो 
स्वागत में यदि हर्ष न हो, तो सूना-सूना सा  लगता है.
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निपट अकेलेपन  में जब प्रिय चाह मिलन की मन में जागे
जब भटकन दिल को मथती हो , जब झंकृत हो मन के तागे
जब वसंत बावरा बनाये और न मन थिर हो पाता हो
तब प्रियतम का दर्श न हो तो सूना सूना सा लगता है .
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जीवन की गंभीर भंवर में कहीं किनारा न दिखता हो
विकट परिस्थिति में जब कोई कहीं सहारा न दिखता हो
उस टूटन, उस बिखरन में जब तिनका भी पर्वत दिखता हो
प्यार भरा स्पर्श न हो तो सूना सूना सा लगता है .



(1) पर सजग रहना तुम्हें है

यह चिरंतन सत्य है तुम जीत सकते हो समर हर
पर सजग रहना तुम्हें है, एक प्रहरी सा निरंतर.
तुम  वही हो  सृष्टि हित जिसने हलाहल को पिया था 
मेरु पर्वत से तुम्हीं ने सिन्धु मंथन भी किया था
पाँव जिसका सैकड़ों योद्धा हिला तक भी न पाए ,
और वारिध को तुम्हीं ने अंजुली में भर लिया था . 
जानता यह विश्व तुमने सेतु बांधा  था जलधि पर
पर सजग रहना तुम्हें है, एक प्रहरी सा निरंतर.
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अस्थियाँ निज दान कर दीं देवताओं की विजय को
जलधि लांघा एक पल में तनिक मन  लाये न भय को
बालपन में खेल में ही रख लिया था भानु मुख में
एक मुष्टि प्रहार दे दी मृत्यु  दसकंधर तनय को
मानता तुम सुरसरी को स्वर्ग से  लाये धरा पर
पर सजग रहना तुम्हें है, एक प्रहरी सा निरंतर.
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सिंह शावक के गिने थे दांत जिसने वह तुम्हीं हो
और गणना के दिए सिद्धांत जिसने वह तुम्हीं हो
ज्ञान का आलोक तुमने ही दिया था विश्व भर को
जगत गुरु गरिमा रही निष्णात जिसमे वह तुम्हीं हो
और पर्वत को उठाया था तुम्हीं ने तर्जनी पर
पर सजग रहना तुम्हें है, एक प्रहरी सा निरंतर.
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ध्यान रखना भारती  के  भाल पर सिलवट न आये
फिर कोई वहशी  लुटेरा इस धरा को छू न पाए
पक्षधर हम हैं अहिंसा के मगर यह ध्यान रखना
इस अहिंसा में हमारा मान भी घटने न पाए
मानता यह सृष्टि का कोई न तुमको कार्य दुष्कर
पर सजग रहना तुम्हें है, एक प्रहरी सा निरंतर