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Sunday, August 26, 2012

(164) जब तक रहो , जलो

जीवन ऐसे जियो , कि जैसे दीपक जीता है  /
तब भी लड़ता , तेल पात्र जब होता रीता है  /

भरा पात्र हो ,  दीपशिखा  तब रहती तनी खड़ी  ,
कीट - पतंगों की भी , उस पर रहती लगी झड़ी  /

झप - झप करते आते वे , लेकिन जब टकराते ,
कहाँ तेज  सह  पाते ,  पंख  जलाते , मर जाते  /

पवन वेग  भी ,  उसे बुझाने  का  प्रयत्न  करता  ,
पर दीपक आख़िरी साँस तक , उससे भी लड़ता /

तैल पात्र जब रीत रहा होता , तब  भी  दीपक  ,
अंतिम बूँद निचुड़ने तक लड़ता रहता अनथक /

यह तो निश्चित है , ऊर्जा के शेष न रहने पर  ,
जाना होगा सबको तजकर , यह शरीर नश्वर  /

पर जो जीवन रहते , दीपक जैसा जलते  हैं ,
वे अपने प्रकाश से , जग आलोकित करते हैं /

इसीलिये कहता हूँ , बस दीपक की भाँति जलो ,
शेष रहो , न रहो जग में , पर जब तक रहो जलो /

                                   - एस . एन . शुक्ल 

Friday, August 17, 2012

(163) ये दुनिया दीवानी होगी

जड़ी शीशे में जो तस्वीर पुरानी होगी  /
नयी तामीर तुझे खुद से करानी  होगी  /

आइना  सिर्फ  दिखाता  है  बाहरी  सूरत  ,
क्या वो तस्वीर , किसी रूह की मानी होगी ?

शराब सी ये ज़िंदगी है , बहकना न कहीं  ,
आग में आग  और पानी में पानी होगी  /

ज़िंदगी रोज नए रंग बदलती है खुद  ,
ज़िंदगी है , तो नयी रोज कहानी होगी /

गुमान कर न अपने हुस्न , रंग -ओ -खुशबू का ,
ये  जो  तसवीर  नयी  है  ,  तो  पुरानी  होगी  /

कुछ ऐसा कर के गुज़र , लोग वाह - वाह कहें  ,
तुम्हारे  नाम  की  , ये  दुनिया  दीवानी  होगी /

                              - एस . एन . शुक्ल 

Sunday, August 12, 2012

(162) मुकद्दर का गिला क्या


राहे -गुनाह चल के , बता  तुझको  मिला क्या  ,
छलनी में गाय दुह के ,मुकद्दर का गिला क्या ?

इंसान  होके  कर  रहा , इंसानियत  का  खूं  ,
अन्दर के तेरे आदमी का , दिल न हिला क्या ?

जितना है , उससे और भी ज्यादा की आरजू ,
इंसान  की  हवस की ,  यहाँ  कोई  हद नहीं ,

इस  चंद - रोजा  ज़िंदगी  के  वास्ते  फरेब ,
दुनिया का किया तूने फतह , कोई किला क्या ?

हर दिल  में  है  निशातो - मसर्रत  की  तश्नगी ,
ता ना -ए- खुदसरी से , कोई गुल भी खिला क्या ?

                                        - एस . एन .शुक्ल

निशातो -मसर्रत = हर्ष और आनंद
तश्नगी = प्यास
ता ना - ए - खुदसरी = उद्दंडता 

Thursday, August 9, 2012

(161) आदमी से डर

जो आसमान पे है उस खुदा का खौफ क्या ,
खुद को खुदा समझने वाले आदमी से डर  /

गैरों में कमी खोज रहा , खुद से बेखबर ,
नासेह तू नहीं है , खुद अपनी कमी से डर /

दोजख - बहिश्त दोनों , तखैयुल की चीज हैं ,
तू जिस जमी की गोद में है , उस जमी से  डर /

हिटलर , मुसोलिनी -ओ - सिकंदर चले गए ,
शाह -ए - जहान तू भी नहीं , परचमी से डर /

मत कर गुरूर ऐसा ज़माल -ओ -ज़लाल पर ,
किसका गुमां रहा है , इसलिए हमीं से डर /
                               - एस . एन . शुक्ल

नासेह = उपदेशक
तखैयुल = कल्पना
परचमी = पताका फहराना
हमी = अहंकार 

Wednesday, August 1, 2012

(160) बशर नाकामियों को जब मुकद्दर मान लेता है

जो मेहनत और हिकमत को ,  इबादत मान लेता है  /
उसे मिलता है वह सब कुछ , जो चाहत ठान लेता है  /

तवंगर  भी  कदमबोशी  को  तब  मज़बूर  होता  है  ,
वो फाकेमस्त ! जिस दम अपनी ताकत जान लेता है /

बदल जाती हैं हाथों  की  लकीरें , और  किश्मत भी ,
बशर जब जीतने की जिद , को मन में ठान लेता है /

मचलता दिल , मगर फिर भी वो बच्चा जिद नहीं करता ,
जो  अपने  बाप  की ,  माली  हकीकत  जान  लेता  है  /

ठहर जाती हैं सारी सलवटें मौजों की बस उस दम ,
समंदर जिस समय , सोने को चादर तान लेता है  /

खुदा भी चाहकर , उसके लिए कुछ कर नहीं सकता ,
बशर  नाकामियों  को  जब  मुकद्दर  मान  लेता  है  /

                                  - एस. एन. शुक्ल