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Monday, May 30, 2011

(50) घायल कर्ण की परीक्षा

 संध्या बीती शशि उदय हुआ, आ गया निशा का प्रथम प्रहर
भेड़िये, स्वान, लोमड़, गीदड़ , ध्वनि कुरुक्षेत्र की धरती पर.
लड़-झगड़  रहे नर मांस हेतु निज उदर पूर्ति का लिए सोच
भौंकते,हुवाते, गुर्राते, लोथों से खाते मांस नोच.
कुछ मूर्छित - अर्ध मूर्छित उर, था मृत्यु पूर्व उठ रहा दाह
घावों की पीड़ा से आहत, था रहा कहीं कोई कराह.
कौरव दल  में था गहन शोक इस असमय कर्ण पराजय पर 
था पाण्डु पक्ष गर्वित प्रसन्न, रण मिली आज अर्जुन जय पर .
बातों-बातों में अर्जुन भी कह गया शब्द कुछ दंभपूर्ण 
मैंने रण मध्य कर्ण खल का, कर दिया आज सब गर्व चूर्ण.
उस दुष्ट, नराधम सूतपुत्र की छाती कर विदीर्ण डाली
दुर्योधन की दाहिनी भुजा भी मैंने आज तोड़ डाली.
तब रहा कृष्ण से गया नहीं, चुप रहो पार्थ वह बोल पड़े
मैं साक्षी हर घटना का हूँ,  इसलिए न बोलो बोल बड़े.
उस कर्ण वीर से तेरी रक्षा का, मैंने हर किया यत्न
तेरी जय में मानव तो क्या, देवों के भी कुछ हैं प्रयत्न
जब कुंडल कवच मांगने को, थे गए इंद्र याचक बनकर
प्रभु परशुराम के दिए हुए, कुंती माता ने मांगे शर.
तब नृप विराट गौशाला में, कपिला गौ ने दे दिया शाप
श्यंदन के पहिये को पृथ्वी ने, अपने उर में लिया चांप.
तीनों लोकों का स्वामी मैं, रहता था तव सारथि बनकर
फिर स्वयं पवनसुत रक्षक बन, रण रहते थे तेरे ध्वज पर.
तब मेरे प्रेरित करने पर, निःशस्त्र कर्ण पर किया वार 
सोचो- केवल निज पौरुष बल , तुम कैसे उसको सके मार?
है मरा अभी तक नहीं कर्ण, घायल लड़ रहा मृत्यु से रण 
उस दानवीर योद्धा क्षति से आहत है वसुधा का  कण-कण.
हे पार्थ, कर्ण है वन्दनीय, अक्षुण, अजेय उसका प्रताप
वह बना समय गति काल-ग्रास , अनुचित तेरा मिथ्या प्रलाप.
बोला अर्जुन दानी योद्धा, मैं कैसे मानूं श्रेष्ठ पुरुष 
यदि कर्ण अभी तक जीवित है तो सिद्ध करें उसका पौरुष.
मेरे सहयोगी होकर भी कर रहे शत्रु का यशोगान 
चल युद्धभूमि में सिद्ध करें, तब मानूं मैं उसको महान.
संजय बोले हे कौन्तेय, कामना पूर्ण होगी तेरी
कर निज शंका का समाधान, चल युद्ध भूमि मत कर देरी.
पर कर्ण परीक्षा लेने को हमको याचक बनना होगा
इस वीर रूप को त्याग पार्थ, ब्राह्मण स्वरुप धरना होगा.
थे विप्र वेश में कृष्ण- पार्थ, रणभूमि खड़े बेबस अधीर 
वे ढूंढ़ रहे थे अंगराज का , शवों मध्य आहत शरीर.
खोजते-खोजते बीत चूका था रजनी का दूसरा प्रहर 
मोहन के पैरों से तब ही  टकराया कर्ण वीर का कर.
बोला राधेय कौन हो तुम, क्या खोज रहे हो शवों बीच
भेड़िये, श्रंगालों में मानव, क्या तुमको लायी मृत्यु खींच ?
संजय बोले हे मनुज श्रेष्ठ, हम दोनों ही याचक ब्राह्मण
पथ  विस्मृत होकर निशा मध्य, आ गए इधर करते विचरण

क्या शिविर बता सकते हो तुम , उस कर्ण वीर का, दानी का 
हम दर्शन लाभ चाहते हैं , उस सूर्यपुत्र वरदानी का.
हे विप्र देर कर दी  तुमने, है कर्ण अकिंचन स्वयं आज 
जो दानवीर कहलाता था, वह शेष कहाँ अब अंगराज ?
बोले  माधव उस दानी का घाट सकता किंचित मान नहीं 
हे वीर कदाचित तुम्हें, कर्ण के बारे में कुछ ज्ञान नहीं.
कैसी भी विषम परिस्थिति में वह सक्षम है सामर्थ्यवान 
इस समय विश्व में  और नहीं, उससा कोई दानी महान
उससे मिल अब तक गया नहीं, कोई भी याचक रिक्त हाँथ 
उस दानवीर की दानशीलता, की लाखों है अमिट गाथ.
तब कहा कर्ण ने विप्र वृन्द , समझाउं तुमको किस प्रकार 
वह दानवीर, वह महाबली, अक्षम है इस क्षण हर प्रकार.
हूँ मै हतभागा  वही कर्ण, पहचानो मुझको हे द्विजवर 
यदि चाहूं भी तो क्या दे दूँ, कैसे दे दूँ तुमको  प्रियवर ?
दुर्भाग्य  इसलिए भी मेरा , कुछ दे न सकूँगा मैं तुमको 
मृत्योपरांत  भी खेद रहेगा , विप्रराज  इसका मुझको.
यह सुनकर क्षण भर सोच, पुनः छोड़ी माधव ने दीर्घ स्वांस 
फिर बोले क्या जाना होगा, अब होकर ब्राह्मण को निराश ?
आ रहा समझ में है मेरी, इन बातों का बस यही सार 
होता था दानवीरता का अब तक तेरी मिथ्या प्रचार.
तब कहा कर्ण ने-विप्र नहीं याचक निराश जाने दूंगा 
जो संभव है समयानुकूल , वह निश्चय ही तुमको दूंगा .
 संभाव्य  विप्र को अर्पित कर , संतोष हृदय कर लेता हूँ
दो दांत स्वर्ण मंडित मेरे, वे तुम्हें दान कर देता हूँ.
पर इसके लिए पड़ा सम्मुख, पाषाण खंड दे दो मुझको
जिससे प्रहार कर तोड़ सकूँ, कर सकूँ इन्हें अर्पण तुमको.
बोले माधव मुझसे श्रम ले, तब तू श्रममूल्य चुकाएगा
यदि ब्राह्मण प्राप्त करे श्रम से, तो दान कहाँ रह जायेगा ?
तब मुष्टि मार कर निज मुख पर, रविसुत ने डाले तोड़ दांत
फिर उनको जड़ से खींच सहज, उपक्रम कर निज रख लिया हाँथ.
बोला हे विप्र ग्रहण कर लो , इस लघुतम भेंट हमारी को
है कर्ण न अब पहले जैसा, समझो उसकी लाचारी को.
बोले माधव हे दानवीर मैं जूठा दान नहीं लेता
ब्राह्मण को देने से पहले कम से कम इनको धो लेता .
पृथ्वी पर घिसट-घिसट कर तब, भट ने संधाने धनुष-बाण
लेटे-लेटे प्रत्यंचा पर, फिर तीर श्रवण तक लिया तान.
अगले क्षण कर से निकला शर , कर गया धरा का उदर पार
पल बीता बाहर उबल पड़ी, धरती से जल की तीव्र धार.
उस जल से धोकर दांतों को तब किया कर्ण ने स्वर्ण दान
मरते क्षण तीनों लोकों के, स्वामी से भी लिया मान.
तब प्रगट हो गए कृष्ण चतुर्भुज, विप्र रूप को दिया त्याग
साक्षात् विष्णु ने सम्मुख हो , कह दिया वत्स जो चाह मांग.
बोला राधेय आपको पा, क्या चाह रह गई पाने की ?
अब तो हे नाथ कृपा कर दें, आज्ञा बस निज पुर जाने की.
सारा जीवन साधक, ऋषि, मुनि, तिल-तिल जल करते हैं प्रयास
हो सफल तपस्या किसी भांति, हो जाय किसी विधि पूर्ण आस.
पुनि-पुनि नर तन ले यही क्रिया, वे बार-बार अपनाते हैं
तब भी दर्शन आपके नाथ, उनको दुरूह हो जाते हैं.
साक्षात् आपको पा करके, है कर्ण धन्य हो गया आज
इससे न अधिक कुछ भी संभव, फिर मांगे क्या, क्यों अंगराज?
बोले माधव ऋषि मुनियों से, हो परम श्रेष्ठ तुम दानवीर
निज उर पुर देता वास तुम्हें, अब तज दो यह नश्वर शरीर.
यह पञ्चभूत निर्मित शरीर, यद्यपि पृथ्वी पर है नश्वर
पर फिर भी तेरी कीर्ति कथा, युग-युग तक होगी अजर-अमर.




   

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