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Saturday, October 29, 2011

(114) तो क्या ?

अँधेरे चारों तरफ फिर वही, जो पहले थे,
एक गर रात , रोशनी में नहाई  तो क्या ?

जश्न की रात, रात भर हुई  आतिशबाजी ,
दिवाली एक रोज के लिए , आई तो क्या ?

उनसे पूछो , कि जिनके घर नहीं जले चूल्हे ,
शब किन्हीं की रही , प्यालों में समाई तो क्या ?

नकारखाने  में , तूती   के  मायने क्या हैं ,
कहीं आवाज भी, पड़ी जो सुनाई  तो क्या ?

साल में एक नहीं, तीन सौ पैंसठ दिन हैं ,
बलात एक दिन , रौनक कहीं आई तो क्या ?

रोशनी वो जो , हर बशर पे एक सा बरसे,
अधूरी रोशनी , फिर आई न आई तो क्या ?

                           - एस. एन.शुक्ल 

Sunday, October 23, 2011

(113) धरा ज्योतिर्मय बनाएं!

रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /
प्रेम की बाती  पिरोकर  , बुझ रहे दीपक  जलाएं /

शान्ति का सन्देश ले , हर वर्ष आती दीपमाला ,
पर तिमिर घटता नहीं, मन में नहीं होता उजाला ,
इस तिमिर को तेल- घृत दीपक, मिटा सकते नहीं हैं,
मनुजता के दीप, फिर बंधुत्व के घृत से सजाएं  /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

व्योम से आकर धरा पर, खिल रहे हैं आज तारे ,
साथ मिलकर   एकता का ,  दे रहे सन्देश सारे  ,
सोचिये!क्या कह रहे ये,क्या समय की माँग इस क्षण,
कह रहे, मानव मनों की आपसी कटुता मिटायें /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

तैरते ये दीप जल पर, शान्ति की लय छेड़ते हैं ,
सौम्यता, सौहार्द से , वातावरण को जोड़ते हैं ,
सीख लें इनसे , सुह्र्द्ता , सौम्यता की,सरलता की ,
मित्रता के पुष्प , जीवन वाटिका में फिर खिलाएं /
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

कुटिलता के गर्त से , हर व्यक्ति का चेहरा सना है,
कलुष का साम्राज्य है, संताप का कुहरा घना है ,
इस कुहासे को मिटाना ही, सभी का लक्ष्य हो अब ,
यूँ प्रज्वल्लित करें दीपक,धरा ज्योतिर्मय बनाएं!
रोशनी का पर्व ! आओ हम सभी मिलकर मनाएं /

                                -S. N. SHUKLA

Friday, October 21, 2011

( 112 ) गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !
स्वर्ग धरती के, फिर वे कहे जायेंगे  / 

पाल्या फिर कही जायेगी यह धरा ,
और नदियाँ , कही जायेंगी फिर वरा,
पूजे जायेंगे तरु, गुल्म, पादप, लता ,
उर्वरा अपनी उगलेगी , सोना हरा ,
जब प्रकृति की यहीं शेष होगी कृपा ,
शहर, गावों की उस दिन , शरण आयेंगे /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

पत्थरों के नगर, जब उबायेंगे , तब ,
चैन खोजेंगे सब , नीम की छाँव में,
गाँव में ही बहेगी प्रकृति की पवन,
चहचहायेंगे पक्षी भी , बस गाँव में ,
लोग, पिकनिक के ही तब बहाने सही,
गाँव में, शान्ति की खोज में आयेंगे /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

आम्र की मंजरी की, मधुर गंध जब,
मिल वसंती बहारों को महकाएगी ,
बौर, पल्लव, लता ओट ले कोकिला ,
मधुमयी तान में , गीत जब गायेगी ,
तितलियाँ सप्त रंगों की इठलायेंगी ,
जब भ्रमर, पुष्प गुच्छों पे मंडराएंगे / 
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

गाय- भैसें , यहीं शेष रह जायेंगी ,
दूध की आश्रिता होगी जब गाँव पर ,
 अन्न, फल, सब्जियाँ, गाँव उपजायेंगे ,
लहलहायेंगी फसलें, इसी ठाँव पर ,
आंका जाएगा , सच मूल्य तब गाँव का ,
ग्रामवासी , कहे देवता जायेंगे  /
एक दिन गाँव , नगरों को ललचायेंगे !

Wednesday, October 19, 2011

( 111 ) इस बार दिवाली में

 दिए जलाए जाते हैं , हर बार दिवाली पर   /
 ईर्ष्या- द्वेष जलाएंगे , इस बार दिवाली पर  /

मिलकर बांटेंगे आपस में, प्यार दिवाली पर ,
ढह जायेगी , नफ़रत की दीवार दिवाली पर /

भीतर-बाहर, घर-आँगन में   उजियारा होगा ,
जब दीपक दमकेंगे ,हर घर- द्वार दिवाली पर /

घर-घर में लक्ष्मी-गणेश का, आराधन होगा ,
और सजेंगे हर घर ,  बंदनवार दिवाली पर /

महानिशा !  के  अंधकार  को ,  दूर भगायेंगे ,
खुशियों की फिर से होगी , बौछार दिवाली पर /

सोच रहा हूँ , शायद उस दिन तुम भी आओगे ,
अपनी भी होंगी , फिर आँखें चार दिवाली पर  /


Monday, October 17, 2011

(110) आओ भुला दें गले मिलकर

माँ भारती की वेदना पर,   मिल विचारें फिर सभी /
आओ भुला दें गले मिलकर, आपसी कटुता अभी / 

हम हिन्दु , मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं,इंसान हैं,
हम एक थे, हम एक हैं ,  हम एकता  की शान हैं ,
फिर किसलिए यूँ लड़ रहे हैं ,   श्वान के जैसे सभी /
आओ भुला दें गले मिलकर, आपसी कटुता अभी / 

हम शत्रुओं की चाल में फंस , स्वयं टकराते रहे ,
अपना वतन ,  खुद दूसरों के हाथ   लुटवाते रहे ,
गत भूल जाओ , किन्तु आगत तो बना सकते अभी /
आओ भुला दें गले  मिलकर,   आपसी कटुता अभी / 

क्या मेह वर्षा से   कभी,  गिरिखंड टूटे हैं भला ?
इतिहास साक्षी है , जलाने जो हमें आया, जला .
अरि को मिटा देंगे , मगर हम मिट नहीं सकते कभी /
आओ भुला दें गले  मिलकर,   आपसी कटुता अभी / 

हम थे जगदगुरु, आज हैं , कल भी वही कहलायेंगे ,
जो चाहते   मेरा अहित , वे स्वयं ही   मिट जायेंगे ,
पर हम सभी में ऐक्य हो, बस मात्र यह संभव तभी /
आओ भुला दें गले मिलकर,  आपसी कटुता अभी / 

Friday, October 14, 2011

(109) सजना है हमें " करवा चौथ पर्व पर "

सजना के लिए, सजना  है हमें /

      प्रिय की हर बात पर,
      उनकी मुसकान पर,
      उनके  हर  गीत पर,
      उनकी  हर तान पर,
घुंघरुओं की तरह ,बजाना है हमें /
सजना के लिए ,  सजना  है हमें /

   आज वृत्त यह, सुहागन का पति के लिए,
   शास्त्र मत से - सुह्रद्ता, सुगति के लिए ,
    कामना ! दीर्घ हो आयु ,  पति प्रेम की ,
   पति के अनुराग, पति की सुमति के लिए ,
चाँद से भी अधिक, छजना है हमें /
सजना के  लिए ,  सजना  है हमें /    

    चाँद को देखकर ,   वृत्त को खोलूँगी मैं, 
    प्रिय से हर बात में, मधु को घोलूँगी मैं,
    चौथ करवा,   प्रिया वृत्त- पिया के लिए ,
    आज नव नेह पट, फिर से खोलूँगी मैं ,        
नव वधू की तरह, लजना है हमें /
सजना के लिए, सजना  है हमें /

    स्त्रियोचित प्रकृति ,गर्विता, मानिनी ,
    पति ह्रदय की रहूँ , मैं सदा स्वामिनी ,
    प्रेम के रंग  , जीवन में  धीमे न हों  ,
    मैं रहूँ भामिनी,उनकी अनुगामिनी  ,
दर्प को, दंभ को , तजना है हमें  /
सजना के लिए, सजना  है हमें /

Wednesday, October 12, 2011

(108) कभी तो रात जायेगी

कभी तो आयेगी  सुबह ,  कभी तो रात  जायेगी /
प्रकाश की किरण कभी तो,फिर से मुस्कुरायेगी  /

ये अन्धकार की निशा ,
मनोविकार की  निशा ,
विशाल भार सी निशा ,
दुरत पहाड़ सी  निशा  ,
हटेगी मार्ग  से कभी, कभी  तो   बीत जायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

दमक उठेगी हर गली ,
लगेगी   रोशनी भली ,
खिलेगी फिर कुसुम कली ,
पवन बहेगी मनचली ,
चहक उठेगी  कोकिला , हवा भी  गुनगुनायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

खुलेगी एक नयी डगर,
लगेगा गाँव भी  नगर ,
हर एक उदास होंठ पर,
खुशी की आयेगी लहर ,
हर एक खुशी भरा प्रहर , नियति तेरा बनायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

अगर न मन निराश हो ,
अगर  चुकी न आश हो ,
ह्रदय से   हार मान मत,
न मन   तेरा उदास  हो ,
तो फिर सुबह तेरे लिए ,   नया पयाम लायेगी /
कभी तो आयेगी सुबह , कभी तो रात जायेगी /

Monday, October 10, 2011

(107) चरित्र निर्माण प्रथम हो


तब  होगा  निर्माण राष्ट्र  का ,जब चरित्र  निर्माण प्रथम हो /
जाति- धर्म से ऊपर उठकर, प्रतिभा का सम्मान प्रथम हो /

आओ ! मातृभूमि की सेवा का , मिलकर संकल्प करें हम ,
अपनी भाषा- भूषा के प्रति , फिर आदर का भाव भरें हम ,
उत्कर्शों के शिखर चढ़ें पर, संस्कृति का उत्थान प्रथम हो /
तब होगा निर्माण राष्ट्र का ,जब  चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

पराधीनता  के  बंधन से ,  मुक्त हुए  छह  दशक  हो गए ,
पर गाँधी, सुभाष के सपने , स्वार्थ सिन्धु के बीच खो गए ,
उन सपनों को सच करने का , घर- घर में अभियान प्रथम हो /
तब होगा  निर्माण  राष्ट्र  का, जब  चरित्र   निर्माण  प्रथम  हो /

लोकतंत्र  के  सोपानों  पर, वर्ग  -  वर्ण  जैसी सीमाएं ,
बाधाओं के अग्निकुंड में, अब भी जलती हैं प्रतिभाएं ,
आवाहन तब करें देश का, जन- जन का आह्वान प्रथम हो /
तब होगा निर्माण  राष्ट्र  का, जब चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

स्वार्थ  साधना  में जनमानस ,  संवेदना  भुला  बैठा  है ,
निज प्रभुता के मद से गर्वित , मनुज स्वयम में ही ऐंठा है,
चढ़ें प्रगति सोपान स्वयम, पर औरों का भी ध्यान प्रथम हो /
तब होगा  निर्माण  राष्ट्र  का, जब चरित्र  निर्माण  प्रथम हो  /

Friday, October 7, 2011

(106) नफ़रत न घोलिये /


अहले खुदा   की  राह में  ,  नफ़रत  न  घोलिये /
एहसास-ए-रंज -ओ-गम , न तराजू से तोलिये /

खुद !  काँच के मकान में , बैठे हुए हैं जब,
औरों के लिए , हाथ में पत्थर न तोलिये /

गीता हो, बाइबिल हो या गुरुग्रंथ हो , कुरान ,
सबके  उसूल  एक  ,  ज़रा  वर्क  खोलिए /

कौमों की सियासत में मुल्क झोंकने वालों ,
ये लफ्ज़ हैं हरजाई , संभलकर के बोलिए  /

वे ज़ख्म पुराने ही , अभी तक नहीं भरे ,
मरहम न दे सकें , तो उन्हें यूँ न खोलिए / 

Wednesday, October 5, 2011

(105) बुझने न पायें

रोशनी के चंद   दीपक ही सही , बुझने न पायें /
चित्र धूमिल ही सही सौहार्द के, मिटने न पायें /

जो मशालें ले  तमस से लड़ रहे , उनको सराहो ,
और जो उनकी हिमायत में खड़े, उनको सराहो ,
दर्द जो औरों का खुद में पालते , वे कम बहुत हैं,
शक्ति दो उनको समर्थन की, रहें जलतीं शमाएँ /
रोशनी के चंद दीपक   ही सही ,  बुझने न पायें /

मानता  हूँ  !  शक्तिशाली हैं ,  उजालों के लुटेरे ,
मानता,  सच को ढके हैं , झूठ के बादल घनेरे ,
फिर उठाओ आंधियाँ, इन बादलों को ठोकरें दो ,
सत, असत पर, न्याय को अन्याय पर विजयी बनाएं /
रोशनी  के   चंद दीपक  ही सही ,   बुझने  न  पायें /

देश के  स्वाधीन   होते  हुए भी  , ग़मगीन  हो  तुम ,
सोचिये ! मतदान के अतिरिक्त कितना दीन हो तुम ,
लोक के  इस  तंत्र  पर ,   काबिज़  लुटेरे   हो चुके हैं ,
मुक्ति का  उसकी करें   सदुपाय , आओ मन बनाएं /
रोशनी के   चंद दीपक  ही सही ,  बुझने   न  पायें /

इस प्रजा के तंत्र में , तुम स्वयं अधिपति हो स्वयं के ,
इसलिए  !  अन्याय को ललकार दो प्रतिकार बन के ,
जो   तुम्हारे   ही दिए  टुकड़ों पे पल   ,  गुर्रा  रहे  हैं ,
दो उन्हें  दुत्कार   , उनके    हौसले   बढ़ने न पायें /
रोशनी के  चंद   दीपक  ही सही ,   बुझने न  पायें /


Saturday, October 1, 2011

(104) चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और यशस्वी प्रधानमंत्री रहे स्व. लालबहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए स्वाधीन भारत के बारे में उनके द्वारा देखे गए स्वप्न स्वतः स्मृति पटल पर उभर आते हैं / आज के भारत जैसा भारत तो नहीं चाहा था उन्ह्नोने ---------------


बलिदानी गाथाओं के स्वर , अनचाहा संगीत हो गए /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए /

तब सोचा था ,त्याग-तपस्या का प्रतिफल कुछ नया मिलेगा ,
आज़ादी  के   गगनांगन   में , देश - प्रेम   का   सूर्य   उगेगा ,
बापू  के  सपनों  के  भारत  में ,  फिर  होगा  नया   उजाला ,
त्रेता युग आयेगा  फिर  से ,  हर चेहरे  पर कमल  खिलेगा  ,
रामराज्य के स्वर्णिम सपने , ज्यों बालू की भीत हो गए /
आज हमारी  आज़ादी को , चौंसठ वर्ष  व्यतीत  हो गए /

जनसेवक का बाना पहने ,  सरकारों  में घुसे  लुटेरे ,
न्याय व्यवस्था पंगु हो गयी ,पहले से बढ़ गए अँधेरे ,
वर्ग,जाति की दीवारों से ,  नेताओं ने सबको बांटा ,
बाहुबली - अपराधकर्मियों ने डाले शासन पर घेरे ,
शत्रु हुए अपने , अपनों के , हम खुद से भयभीत हो गए /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ  वर्ष  व्यतीत हो गए /

किससे करें शिकायत किसकी , घर को   घरवालों ने लूटा ,
स्वार्थ साधनारत जनसेवक , जन सुख-दुःख से नाता टूटा ,
मत बिकते, मतदाता बिकते , बिकते पद , बिकती सरकारें ,
धनबल, जनबल से भय खाकर , सच्चा भी बन जाता झूठा ,
अर्धशतक में ही भारत के , गृह फिर से विपरीत हो गए  /
आज हमारी आज़ादी को , चौंसठ वर्ष व्यतीत हो गए /

जाति - धर्म की बलिवेदी पर , औसत सौ  प्रतिदिन हत्याएं ,
लूट , डकैती ,व्यभिचारों की,  हर दिन अगणित नयी कथाएं ,
तथाकथित जनप्रतिनिधि- प्रहरी , आग लगाकर हाथ सेकते ,
अनाचार,  अन्याय ,  अराजकता , अनीति   लाघीं  सीमाएं ,
शान्ति, प्रेम ,सहयोग ,सुह्र्दता , परदेशी की प्रीती हो गए /
आज  हमारी आज़ादी को ,  चौंसठ  वर्ष  व्यतीत  हो गए /