लखनऊ कैसा ये बरपा है तेरे घर में कहर
शहर-ऐ-तहजीब है इस दौर दरिंदों का शहर.
कहीं बलवा और कहीं कत्ल, कहीं डाकेजनी
मिल्ल्तों का ये शहर आज है दंगों का शहर.
अदब-ओ-तहजीब पे ग़ालिब हैं बदजुबा फिकरे
हर तरफ यक सा नुमायाँ है लफंगों का शहर.
बीती बातें हैं नफासत और वो शाम-ए-अवध
बदनुमा लग रहा है आज ये रंगों का शहर.
कैसे कह दूँ कि फ़िदा हम व लखनऊ हम पर
है ये अब सिर्फ और सिर्फ दबंगों का शहर.
है ये अब सिर्फ और सिर्फ दबंगों का शहर.
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