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Monday, November 11, 2013

देश को खाते रहे

                         देश को खाते रहे

   दीमकों से हम इधर घर को बचाते रह गए ,
   और  कीड़े  कुर्सियों के,  देश  को खाते  रहे.

   हम इधर लड़ते रहे आपस में दुश्मन की तरह,
   उधर  सरहद  पार से  घुसपैठिये  आते  रहे .

   जल रहा था देश , दंगों से, धमाकों से इधर ,
   शीशमहलों में उधर वे जाम  टकराते  रहे .

   झूठ की अहले सियासत और अपना ऐतबार,
   वे दगा  करते  हम फिर भी आजमाते  रहे .

   मुफलिसी से तंग हम, करते गुजारिश रह गए,
   वे हमें हर बार केवल , ख्व़ाब  दिखलाते  रहे  .

   प्याज-रोटी भी हुआ मुश्किल, गरानी इस कदर,
   मुल्क  मालामाल  है , यह गीत  वे  गाते  रहे  .

                        - एस.एन.शुक्ल