दर-ए-दिल हर किसी के सामने खोला नहीं जाता
मोहब्बत को तराजू पर कभी तोला नहीं जाता
परों को प्यार के परखा न जाता खुर्दबीनों से
ज़हर ज़ज्बात के रिश्तों में यूँ घोला नहीं जाता
गिले शिकवे मोहब्बत में हर एक बेला नहीं करते
ये नाजुक कांच हैं , फेंका यहाँ ढेला नहीं करते
सफीना डूबने के दर से जो मायूस रहते हैं
वो लहरों से समंदर की कभी खेला नहीं करते
मोहब्बत की नहीं जिसने वो उसका सार क्या जाने
जो इस एहसास से महरूम है वह प्यार क्या जाने
किसी दिल में उतर जाना, किन्हीं आँखों में बस जाना
बना जाता किसी का किस तरह दिलदार क्या जाने
कोई मंदिर ओ मस्जिद, चर्च , गुरुद्वारा नहीं होती
कोई चाहत नहीं होती, कोई प्यारा नहीं होता
न कोई तुरबतें होतीं, न बनता ताज दुनिया में
किसी की आँख का कोई कभी तारा नहीं होता
जवानी की कहीं कोई कहानी भी नहीं होती
न खिलते फूल गुलशन में रवानी भी नहीं होती
मोहब्बत बिन खुदाई क्या, खुदा भी खुद नहीं होता
कहीं इंसान की कोई निशानी भी नहीं होती
कोई लैला, कोई मजनू, कोई फरहाद न होता
मोहब्बत के लिए कोई कहीं बर्बाद न होता
ये दर्द-ओ-गम नहीं होते,कोई रिश्ते नहीं होते
कोई कुनबा, कोई बस्ती, नगर आबाद न होता
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