कौन्तेय कर्ण के मध्य उस समय, था चल रहा चरम पर रण
दोनों की रक्त फुहारों से, रंग रहा धरित्री का कण-कण.
दोनों के विशिख प्रहारों से, क्षत-विक्षत दोनों के शारीर
निर्णायक क्षण की वेला थी, दोनों सम बल, दोनों गंभीर.
इस गति से तीर छूटते थे, दिखता प्रहार न प्रहारांत
श्रम बिंदु मिल रहे श्रोणित से, दोनों के तन मुख श्रमित क्लांत.
उड़ गए पताका ध्वजा क्षत्र, हिल गयी रथों की भी कीलें
मृत रुंड-मुंड से पटी धरा, मंडराते गीध, बाज, चीलें.
क्रोधित हो तभी धनंजय ने , नारायण शर कर लिया थाम
तब जान सृष्टि का क्षय निश्चित, देवता उठे कर त्राहिमाम.
पर तभी कर्ण के श्यंदन का, पहिया धंस गया, धरा उर में
रुक गए अस्त्र, थम गया युद्ध, संतोष हुआ कुछ सुर पुर में .
तब वीर कर्ण ने धनुष-बाण रख दिए विवश रथ के अन्दर
श्यंदन को छोड़ निहत्था ही आ गया उतर कर धरती पर .
रथ के पहिये को धंसा देख, लग गया उठाने स्वयं वीर
ज्यौं- ज्यौं बल कर्ण लगाता था, वह धंसता जाता था गंभीर.
विश्वासघात होगा उससे , इससे नितांत अनजाना था
कपिला गौ का था शाप फलित, रथ धंसना मात्र बहाना था.
तत्समय युद्ध के नियमों में वर्जित था वार निहत्थे पर
अर्जुन ने तत्क्षण रोक लिया, शर चढ़ा हुआ प्रत्यंचा पर.
तब कहा कृष्ण ने अर्जुन से, हे वीर करो अपना प्रहार
ऐसा अवसर रण मध्य नहीं आने वाला है बार-बार .
अर्जुन बोला नियमानुसार है वार निहत्थे पर वर्जित
निज स्वार्थ हेतु कैसे तज दूँ, जीवन भर की निष्ठा अर्जित?
संजय बोले तब, जुआ युद्ध में विजय हेतु है सभी उचित
है पार्थ यही उपयुक्त समय, मत खड़े रहो अब चित्र खचित.
वैरी क्षत्रिय, महिपाल हेतु कब, कहाँ, कौन सा कार्य हेय
छल है या बल यह मत सोचो, सन्धानो शर धनु कौन्तेय.
सृष्टि के आदि से आज तलक, अपनाई सबने यही रीति
छल-बल से विजय प्राप्त करना , है रही युद्ध की सदा नीति.
जालंधर वध के लिए विष्णु ने वृंदा के संग किया घात
भस्मासुर के विनाश में भी नारी स्वरुप का लिया साथ.
वारिध मंथन में असुरों को , छल से मदिरा पिलवायी थी
पियूष पिलाकर देवों को युद्ध में विजय दिलवाई थी .
त्रेता में भी रघुनन्दन ने, था किया बालि का वध छल से
फिर मेघनाद, दशकंधर का भी किया न वध केवल बल से .
हमने भी भीष्म पितामह को, छल से रणभूमि हराया था
फिर उसी नीति से गुरू द्रोण को भी सुरलोक पठाया था .
क्या भूल गए जब द्रुपद सुता को केश पकड़ कर ले आया
निर्वसना करने का प्रयास था दुहशासन ने अपनाया .
जब भरी सभा के बीच , द्रोपदी कड़ी हुई थी निस्सहाय
तब किसने उसका लिया पक्ष, तब किसने तुमसे किया न्याय ?
तब उसी सभा में भीष्म, द्रोण ने अधर न क्योंकर खोले थे
क्या होते देख अनीति, कर्ण या कृपाचार्य कुछ बोले थे ?
वह द्यूतकर्म, द्रोपदी विनय, वह लाक्ष्याग्रह का अग्निकांड
क्या भूल गए, अभिमन्यु तनय के कैसे अरि ने लिए प्राण ?
वे रहे सदा अपनाते छल,कौरव कब चले नीति पथ पर
है कर्ण उन्हीं का मित्र-बधो, वह रथ पर हो या धरती पर.
जब रथ का पहिया उठा कर्ण, कर में ले लेगा धनुष-बाण
तब रोम न उसका छू पाओगे, इतना निश्चित रखो ध्यान.
स्मरण रहे अपने युग का, निश्चय वह अप्रतिम योद्धा है
दुर्योधन की दाहिनी भुजा, वीरों का वीर पुरोधा है.
इस समय कर्ण के कन्धों पर, है शत्रु पक्ष का सकल भार
कौरवी शक्ति का केंद्र बिंदु, सारा इस पर दारोमदार.
कर्ण की मृत्यु का समाचार, जब कौरव दल में जायेगा
तो तेरा गर्वित शत्रु पक्ष, बलहीन स्वयं हो जायेगा.
साधन भी है अवसर भी है, है समय तुम्हारे सानुकूल
दुविधा मत पालो कौन्तेय, मत करो चूक , मत करो भूल.
है परशुराम का शिष्य कर्ण सायुध संहार असंभव है
अब तक के युद्ध मध्य अर्जुन, हो चूका तुम्हें भी अनुभव है.
वरदान उन्हीं का है इसको, रण लड़कर नहीं हरा सकता
आयुध हांथों में लिए कर्ण से विजय न कोई पा सकता.
यह सुर्यपुत्र जब हांथों में, थामेगा फिर से धनुष-तीर
दुष्कर ही नहीं असंभव है, तब जीता जाये कर्णवीर.
है वही कर्ण यह, पांचाली को नगर बधू जो कहता है
कुत्सित व द्वेष का भाव सदा पांडव जन के प्रति रहता है.
इसलिए प्रतिज्ञा पूरण कर, मत सोच उचित-अनुचित क्या है
अन्न्याई के संग नीति युद्ध, यह भाव सर्वथा मिथ्या है.
फिर जन्म- मृत्यु तो निश्चित है,तू तो बस मात्र बहाना है
आ गयी मृत्यु बेला जिसकी, उसको बस उस क्षण जाना है.
तेरे ही द्वारा और अभी, है लिखा कर्ण वध इसी तरह
शर प्रत्यंचा से जाने दे मत कर विलम्ब, मत रह निस्पृह.
फिर कुरु दल की अनीति का भी, तो नाश तुझे ही करना है
कौरव दल के हर अनुगामी को, फल कर्मों का भरना है.
अब प्राण कर्ण के लेने को, है काल रहा तुझको निहार
दुविधा से बाहर आ अर्जुन, चिंता को तज बस कर प्रहार.
विचलित हो गया धनंजय भी,फंस यदुनंदन के वाग्जाल
फडकने लग गए अधराधर, हो गए क्रोध से चक्षु लाल.
डगमग हो गई मनः स्थिति, भर गया रोष से अंतस्तल
हो गया विवेक शून्य अर्जुन, उर दहका भीषण क्रोधानल.
शर चढ़ा तुरत प्रत्यंचा पर, फिर खींच श्रवण तक लिया तान
तत्पर अरी वध के लिए पार्थ, फुंकार उठा तक्षक समान.
फिर पलक झपकते चला तीर, विषधर भुजंग ज्यों बल खाकर
मनो पशुपति का ही त्रिशूल, धंस गया कर्ण के उर जाकर.
आघात भयंकर था इतना, हो गया सहन करना दुष्कर
आ गयी मूर्छा क्षण भर में, गिर गया धरनि पर भहराकर.
अब तक के युद्ध मध्य अर्जुन, हो चूका तुम्हें भी अनुभव है.
वरदान उन्हीं का है इसको, रण लड़कर नहीं हरा सकता
आयुध हांथों में लिए कर्ण से विजय न कोई पा सकता.
यह सुर्यपुत्र जब हांथों में, थामेगा फिर से धनुष-तीर
दुष्कर ही नहीं असंभव है, तब जीता जाये कर्णवीर.
है वही कर्ण यह, पांचाली को नगर बधू जो कहता है
कुत्सित व द्वेष का भाव सदा पांडव जन के प्रति रहता है.
इसलिए प्रतिज्ञा पूरण कर, मत सोच उचित-अनुचित क्या है
अन्न्याई के संग नीति युद्ध, यह भाव सर्वथा मिथ्या है.
फिर जन्म- मृत्यु तो निश्चित है,तू तो बस मात्र बहाना है
आ गयी मृत्यु बेला जिसकी, उसको बस उस क्षण जाना है.
तेरे ही द्वारा और अभी, है लिखा कर्ण वध इसी तरह
शर प्रत्यंचा से जाने दे मत कर विलम्ब, मत रह निस्पृह.
फिर कुरु दल की अनीति का भी, तो नाश तुझे ही करना है
कौरव दल के हर अनुगामी को, फल कर्मों का भरना है.
अब प्राण कर्ण के लेने को, है काल रहा तुझको निहार
दुविधा से बाहर आ अर्जुन, चिंता को तज बस कर प्रहार.
विचलित हो गया धनंजय भी,फंस यदुनंदन के वाग्जाल
फडकने लग गए अधराधर, हो गए क्रोध से चक्षु लाल.
डगमग हो गई मनः स्थिति, भर गया रोष से अंतस्तल
हो गया विवेक शून्य अर्जुन, उर दहका भीषण क्रोधानल.
शर चढ़ा तुरत प्रत्यंचा पर, फिर खींच श्रवण तक लिया तान
तत्पर अरी वध के लिए पार्थ, फुंकार उठा तक्षक समान.
फिर पलक झपकते चला तीर, विषधर भुजंग ज्यों बल खाकर
मनो पशुपति का ही त्रिशूल, धंस गया कर्ण के उर जाकर.
आघात भयंकर था इतना, हो गया सहन करना दुष्कर
आ गयी मूर्छा क्षण भर में, गिर गया धरनि पर भहराकर.
कुछ क्षण बीते चेतना जगी , सम्मुख देखा यदुनंदन को
आ गयी व्यथा उर की बाहर, वह रोक न पाया क्रन्दन को.
बस बोला इतना हे गिरिधर, था उचित न तुमको पक्षपात
यह विजय पार्थ की नहीं क्योंकि उसने धोखे से किया घात.
निज कुंडल-कवच पुरंदर को, मां को गुरु के दे दिए बाण
बस रण था अब पुरषार्थ मध्य, फिर क्यों धोखे से लिए प्राण?
हैं आप पार्थ पर कृपावान, इससे मुझको क्या लेना था
कौन्तेय-कर्ण को रण पौरुष भी तो अजमाने देना था.
अब तो यह प्रायः निश्चित है , अंततः मृत्यु मैं पाउँगा
पर जो अपकीर्ति तुम्हें मिलनी है, उससे रोक क्या पाउँगा ?
माना अनीति पथ दुर्योधन, पर आप रहे कब नीति पक्ष
यदि कुरुदल की छवि धूमिल थी, तो रही आपकी कहाँ स्वच्छ ?
है विश्व विदित जो नीति भीष्म वध हेतु आपने अपनाई
फिर गुरू द्रोण की मृत्यु हेतु भी वही क्रिया थी दोहराई .
अब मेरे साथ हुआ जो कुछ, दुःख उसका नहीं रंच भर है
पर अपयश दंश मिले तुमको, बस मात्र मुझे इसका डर है.
यह अंतिम विनय आपसे है, संभव हो इसे छिपा जाना
था कर्ण तुम्हारा ही अग्रज, मत कभी पार्थ को बतलाना.
संभव था युद्ध नहीं होता, संभव था रुक जाता विनाश
हों शासक केवल पाण्डुपुत्र, पर कैसे होती पूर्ण आस .
यदि तुम्हें बुआ के पुत्रों का हित भाता, तो मैं भी तो था
मैं नहीं पाण्डुसुत था तो क्या, अग्रज था और सहोदर था.
मैंने इस रण में कई बार, छोड़ा उन सबको अनुज जान
रण बार-बार मुझसे मिलकर , तुम सदा कराते रहे भान.
हैं पाण्डु पुत्र मेरे भाई, यह तुमने ही बतलाया था
पर कर्ण तुम्हारा अग्रज है, क्या उनसे यह कह पाया था ?
भगिनी सुहाग की रक्षा का, था साथ तुम्हारे जुड़ा स्वार्थ
इसलिए कुचक्र रहे रचते, तुम सदा बचाते रहे पार्थ.
अनिवार्य युद्ध था समर भूमि, यह क्षत्रिय की परवशता थी
जीवित रहता तो अर्जुन वध, करना प्रण हेतु विवशता थी.
तब कहा कृष्ण ने मित्र कर्ण, क्यों आया यह अज्ञान तुझे
वह अंगराज हो याकि पार्थ, दोनों हैं एक समान मुझे .
इस मृत्यु लोक में हर कोई पाता है अपना कर्म भोग
विधना ने लिखा इसी विधि था, तेरे जीवन में मृत्यु योग.
जब निश्चित है विधि का विधान , क्या सोच और क्या रोना है
फिर यश-अपयश या लाभ-हानि तो हर जीवन संग होना है.
तेरे वध से मैंने तो क्या, जग ने अमूल्य निधि खोई है
तुझसा दानी या मित्र, वीर अब सृष्टि न दूजा कोई है.
प्रभु परशुराम, कपिला गौ के, वचनों की लाज निभानी थी
यह निश्चित था विधि का विधान, तब मृत्यु इसी विधि आनी थी.
है मेरा यह आशीष तुझे, तव कीर्ति युगों तक रहे अमर
मानापमान या जन्म-मृत्यु, सब कुछ निश्चित है पृथ्वी पर.
6 comments:
आपकी "मैं विद्रोही बन जिया सदा" कविता कल के चर्चा मंच पर है ..कृपया आयें लिंक साथ में है ...
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 31 - 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
बहुत अच्छी रचना।
उत्कृष्ट लेखन ..
बहुत अच्छी रचना है ..!!
sangeeta ji
saptahik kavya manch par sthan dene ke liye aapka aabhari hoon.
manoj ji tatha anupama ji
rachna par utsahvardhan ke liye dhanyawad.
S.N.Shukla
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Have a great day. Bye
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