भरी दोपहर तपती धरती
रवि किरणें ज्वाला बरसातीं
और हवा की भीषण गति में
रह रह कर लपटें बल खातीं
वस्त्रहीन शिशुओं को मैंने
देखा फुटपाथों पर जलते
फटे चीथड़े में माओं को
तिल तिल कर के गलते देखा.
तिल तिल कर के गलते देखा.
जल-थल सारे एक हो गए
मूसलधार बरसता पानी
झोपड़ियों में घुस घुटनों तक
वारि राशि करती मनमानी
छप छप कर कीचड पानी में
कीड़ों जैसा जीवन जीते
आश्रयहीन समूहों में भी
जनमानस को पलते देखा.
पौष माघ की कड़ी शीत में
गोदी में दुधमुहाँ दबाये
पाले कुहरे और ओस में
लघु वस्त्रों में लाज छुपाये
लाखों ललनाओं को मैंने
देखा भूख प्यास से व्याकुल
कृश शरीर निर्वसन देह में
वृद्ध जनों को ढलते देखा.
दैव तुम्हारी रचना में तो
मानव सबसे श्रेष्ठ कहाता
कितु बिलाव स्वान मूषक के
जैसा भी वह भाग्य न पाता
रजत पीन्जरों में मूषक सुत
क्षीर बिलावों को मिलता है
और सुन्दरी की गोदी में
स्वान पुत्र को पलते देखा.
तिल तिल कर के गलते देखा.
तिल तिल कर के गलते देखा.
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