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Thursday, May 2, 2013

(176) हिम सदृश मुझको गलना ही है


   पिछले करीब दस माह से कैंसर से लड़ रहा हूँ। यह जंग अभी भी जारी है , इसलिए ब्लॉग पर सक्रियता भी बाधित रही। आप मित्रों की शुभकामनाओं का ही असर है कि अब बहुत  सुधार है। आशा है मेरी अनुपस्थिति और जवाब न दे पाने की विवशता को समझेंगे।

                       हिम सदृश मुझको गलना ही है 

सूर्य  ढलने  लगा , पर थका  मैं  नहीं ,
क्योंकि बाकी बहुत काम अब तक भी है।
तुम चलो  ,मैं अभी शेष  निबटाऊँगा ,
क्योंकि बाकी बहुत शाम अब तक भी है।
  
अपना दायित्व सौपूं किसी को नहीं ,
यह तो जी का चुराना हुआ काम से।
जो मेरा धर्म है , वह निभाऊँगा मैं ,
जाना जाएगा  उसको मेरे नाम से।

तुम भरोसा रखो , मैं  थकूंगा  नहीं ,
काम जब तक न ये पूर्ण हो जायेगा।
काम पूरा  न हो  और  सोने  लगूं ,
क्या ये संभव है मन नीद ले पायेगा ?

वह शयन क्या , उनीदे रहे रात भर ,
रात भर  करवटें ले  बिताया  किये।
रात्रि थोड़ी  भले शेष रह  जायेगी ,
किन्तु उतनी बहुत होगी मेरे लिए।

मानता मार्ग लंबा है फिर भी मुझे ,
लक्ष्य की प्राप्ति तक इसपे चलना ही है।
भर न जाए नदी , धार में गति न हो ,
तब तलक हिम सदृश मुझको गलना ही है।

                           - एस .एन .शुक्ल