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Monday, May 30, 2011

(47) उसमें मुझमें कुछ भेद नहीं

मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद
मुझमें उसमें अंतर इतना, ज्यों मूल और प्रति का विभेद.

जैसे बगिया में खिले फूल, जैसे मिटटी  में बसी धूल
जैसे पुष्पों संग लगे शूल, जैसे वृक्षों से जुडी मूल
जैसे मारुत में बसी गंध,जैसे कविता में रचे छंद
जैसे शरीर के रंध्रों से ,छनकर निकलें श्रमबिंदु  स्वेद 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे सरगम से बने गीत, जैसे प्रियतम से जुडी प्रीत
जैसे मिर्ची में बसी तीत , जैसे मिटटी से बने भीत
जैसे सागर से मिले सरित ,जैसे बादल में बसी तड़ित
ज्यों पन्नों में इतिहास बसा, जैसे छंदों में रचे वेद
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे शारीर में बसे प्राण, नासिका बसे ज्यों शक्ति घ्राण
जैसे मिठास से युक्त खांड,ज्यों प्रत्यंचा में चढ़ा बाण
जैसे वीणा में बजें तार ,जैसे प्रयाग में त्रिनद धार
ज्यों चातुर्मास महीनों में, हों वारि राशि से भरे मेघ 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे फूलों में हो पराग, जैसे पाहन में छुपी आग 
जैसे सागर जल उठे झाग , जैसे सूची में फंसा ताग 
जैसे धरती से मिले गगन , जैसे सुगंध ले बहे पवन 
मेरी सुध उसने विसरा दी, बस इतना मुझको रहा खेद 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद. 
  

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