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Tuesday, November 29, 2011

(122) मंजिल तलाशते रहे ....

मंजिल तलाशते रहे , परछाइयों के साथ  /
उगते रहे बबूल भी  ,  अमराइयों के साथ  /

सीने पे  ज़ख्म  खा के भी ,  खामोश  है कोई ,
अब गम मना रहे हैं वो , शहनाइयों के साथ  /

तब छाँव की तलाश में , दर- दर भटक रहे ,
जब शायबान उड़ गए  , पुरवाइयों के साथ  /

चाहत की बात का न तकाजा वो अब रहा  ,
हैं ख्वाहिशें दफ़न यहाँ , गहराइयों के साथ /

ताजिस्त वस्ल- ए - यार मयस्सर न हो सका ,
यह ज़िंदगी गुजर गई ,  तनहाइयों  के  साथ  /

Sunday, November 27, 2011

(121) दास्तां बदलो

अन्धेरा घिर न आये दोस्तों, बुझती शमां बदलो /
चमन गुलज़ार कर पाए न , ऐसा बागवाँ बदलो  /

 दिलों  में जल रही है आग ,   कैसी कसमसाहट  है,
ज़माना , चाहता कुछ कर गुजरना है , समां बदलो /

न ज्यादा आजमाने की , ज़रुरत रह गई  इनको ,
गुज़र जाएँ न लमहे , वक़्त रहते राजदां  बदलो  /

तसल्ली कब  तलक होगी भला झूठे दिलासों से ,
अगर बरसें न ये बादल , तो सारा आसमां बदलो /

दिया तब पीठ पर खंजर, इन्हें जब भी मिला मौक़ा ,
लुटेरे  काफिले  का   साथ  छोडो  , कारवां बदलो  /

ये इस्पाती घड़े हैं  , जुर्म से भर जायेंगे , फिर भी  ,
न टूटेंगे  ,  इन्हें तोड़ो  ,   पुरानी  दास्तां   बदलो  /


                                             - S. N. Shukla

Tuesday, November 22, 2011

(120) जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए-----

जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
गुल, गुलिस्तान के आह भरते रहे  , कसमसाती  रहीं  डालियाँ  उम्र भर /

अपने खाली कटोरे सिसकते रहे,  उनकी मेजों पे चम्मच खनकते रहे ,
बाग़ वे सब्ज हमको दिखाते रहे  , हम बजाते रहे तालियाँ  उम्र  भर  /

देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे  ,  वे  उठाते  रहे  उँगलियाँ उम्र भर  /

मेरे घर खोदकर बन गयीं  कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /

कितना ढाएँगे वे जुल्म और कब तलक, एक दिन वे भी तो ख़ाक में जायेंगे ,
जो जला वह बुझा , जो फरा सो झरा , सोच सहते  रहे  गालियाँ  उम्र भर  /

जिस्म इंसान के गोलियाँ बन गए  , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
                
                                                                        -S.N.Shukla

Wednesday, November 16, 2011

(119) तम भरी बदली टलेगी /

प्रकृति का है नियम परिवर्तन , अगर यह सत्य तो फिर ,
जो फरा   वह है झरा भी ,   सत्य है   यह तथ्य तो फिर ,
किसलिए मन में निराशा, भय , हताशा, खेद, सम्भ्रम,
जटिलता की   यह घड़ी भी  , क्या सदा यूँ  ही चलेगी  ?

मनुज के कृत कर्म से ,  माना समय   बलवान होता ,
किन्तु यह भी सत्य है  , हर उदय का अवसान होता ,
देव गति के सामने  ,  होती विवशता  हर किसी की ,
अवशता की अग्नि भी , उर में भला कब तक जलेगी ?

फल प्रकृति आधीन है , पर कर्म पर अधिकार तेरा ,
नियति भी झुकती उन्हीं से, तोड़ते जो विषम घेरा  ,
शुष्क पौधों को निराता - सींचता   यह सोच माली ,
कर्म कृषि अपने समय पर , एक दिन निश्चय फलेगी/

दैन्यता , असहायता का ,  दंश भी सह लो ह्रदय पर ,
ध्यान रखना, क्रोध या अविवेक मत छाये विनय पर ,
शील, साहस ने सदा ही , विजय पायी है समय से  ,
सूर्य  फिर होगा प्रभामय , तम भरी बदली टलेगी  /

Friday, November 11, 2011

(118) फिर अन्धेरा दौर

भूलना कर्तव्य को , अधिकार की बातें हमेशा ,
इस समूचे देश में , हर वर्ग का बस एक पेशा ,
दंभ का कुहरा , विनय की चाँदनी पर छा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

कर रहा छल- छद्म , जैसे हर नगर में आज फेरा ,
बन रहे  अपने , पराये ,   स्वार्थ का हर और डेरा ,
स्वान का सा धर्म , अब मानव मानों को भा गया है ,
फिर अँधेरा दौर  कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

आधुनिकता की  डगर में ,  टूटते रिश्ते पुराने ,
पालकों तक के हुए अब , आज सब चेहरे अजाने ,
अंधड़ों में फँस यहाँ ,  हर आदमी छितरा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

पागलों से घूमते हम , शस्त्र अपनों पर उठाये ,
क्या अमिय का अर्थ , जब विषकुम्भ निज उर में छिपाए?
दुष्टता का दैत्य  !  मानवता ह्रदय की खा गया है ,
फिर अँधेरा दौर कैसा  ,  इस धरा पर आ गया है ?

                                              - S. N. Shukla

Monday, November 7, 2011

(117) हथियार संभालो

आज अहिंसा  नहीं जवानों  ,  हाथों में हथियार  संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो / 


रिरियाते - मिमियाते से स्वर, और याचना की मुद्राएँ  ,
दैन्य, दासता , जाति - धर्म की , ये ओछी-थोथी सीमाएँ,
तोड़ो, छोड़ो झूठे बंधन ,  सबल बनो , अधिकार संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /


दाता, दीन- हीन फिरते हैं ,   याचक हैं महलों के वासी ,
मूर्खराज का वंदन करती , प्रतिभा बन चरणों की दासी ,
आगे और अनीति नहीं अब , विषपायी तलवार संभालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /


कन्धों पर चढ़कर औरों के , पार करो मत गहरे जल को ,
जीवन की   गंभीर भंवर में  , कंधे  साथ न  देंगे कल को ,
बनो सफल तैराक स्वयं , औरों को भी उस पार निकालो /
लुटता देश और तुम चुप हो , खुद अपनी पतवार संभालो /












                                                              S.N.Shukla

Friday, November 4, 2011

(116 ) गज़ब वो शिल्पकार है /

ये सस्य- श्यामला धरा, ये नीलिमा लिए गगन, 
ये तारकों भरी निशा , सुबह की मद भरी पवन,
ये शीत, ताप,  मेह ,   अंधकार में ,   प्रकाश में ,
ये हिम ,   नदी प्रवाह और शुभ्र   जलप्रपात में,
ये सूर्य- चन्द्र रश्मियों में ,जिसका साहकार है/
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

हरी- भरी ये वादियाँ,   पहाड़ ये   तने - तने ,
ये लहलहाते खेत और बाग़- वन घने - घने ,
वो जिसने रत्न   हैं   धरा के गर्भ में छुपा धरे ,
वो जिसके हर प्रयत्न हैं , मनुष्य बुद्धि से परे ,
जलधि तरंग को ,  उछालता जो बार- बार है  /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

असीम वारि राशि से, भरे हुए समुद्र ये ,
समुद्र के विशालकाय और जंतु छुद्र ये  ,
ये व्योम, वायु ,अग्नि,वारि , भूमि पंचतत्व से,
रचाया प्राणिमात्र को ,   विधान से, ममत्व से ,
किया उसी ने,  जीवनीय शक्ति का संचार है /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

रचे उसी   ने  जीव  और जंतु   हर प्रजाति के ,
रचे उसी ने अन्न , फल व पुष्प भाँति- भाँति के ,
रचा उसी ने धूप- छाँव , मेघ की फुहार को ,
रचा उसी ने वायु को, वसंत की बहार  को ,
किया उसी ने रंग, गंध , स्वाद का प्रसार है /
अजब वो चित्रकार है , गज़ब वो शिल्पकार है /

Tuesday, November 1, 2011

(115) नारी की नियति विवशता है /

वह पिता और पति, पुत्रों क्या , जन - जन के द्वारा त्रस्ता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

था छला अहिल्या को जिसने, वह देवराज कहलाता है,
जननी हंता उस परशुराम का , सारा जग यश गाता है,
सोलह हजार रानी वाला ,  भगवान कहाया जाता है ,
पत्नी का दाँव लगाने वाला , धर्मराज पद पाता है ,
केवल नारी के ही जीवन में, यह कैसी परवशता है ?
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

हर युग में नारी का शोषण, इतिहास गवाही देता है ,
त्रेता , द्वापर में भी उसका , चीत्कार सुनायी देता है  ,
उस शेषनाग अवतारी ने , काटे नारी के  नाक- कान ,
रावण सा पंडित , ज्ञानी , छल से पर नारी हर लेता है ,
कापुरुष तलक बनकर भुजंग, बस नारी को ही डसता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

सीता की अग्नि परीक्षा ली ,  फिर भी न राम ने अपनाया ,
अम्बा को भीष्म महाबल से , क्यों भरी सभा से हर लाया ?
क्या द्रुपद सुता थी वस्तु , कि जिसको पाँच भाइयों ने बाँटा ?
पुरुषार्थ , विवश अबला पर ही , क्यों दुस्साशन ने अजमाया ?
अवसाद, घृणा या तिरस्कार से ही नारी का रिश्ता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

था पुरुष प्रधान समाज आदि से, नारी भोग्या कहलाई ,
बहुपत्नी नर कर लेता था, नारी कब बहुपति कर पायी ?
पति चिता मध्य पत्नी जलती थी, पति पर नहीं बाध्यता थी ,
नर रहा सदा ही मूल्यवान , नारी का जीवन सस्ता है  /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

वस्तु की भाँति बिकती थीं वे, ग्रंथों में इसका लेखा है ,
धन, धरा और नारी के कारण , ही युद्धों को  देखा है  ,
बालिका जन्मते ही ,  उसका वध कर देते थे राजपूत  ,
घर की चहारदीवारी ही, उसकी बस सीमा रेखा है ,
पर दया - धर्म , ममता , मृदुता , तब भी नारी में बसता है /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /

सडकों, गलियों में छेड़छाड़ , भीड़ों में शीलहीन फिकरे ,
क्या राजनीति, क्या लोकरीति , नारी चरित्र के ही जिकरे ,
क्यों नारी के ही हिस्से में, ह्त्या, अपहरण , बलात्कार ,
ज्यों चील झपटती चूहों पर, ज्यों कबूतरों पर हों शिकरे ,
नारी भ्रूणों की ह्त्या कर , नर फिरता बना फरिस्ता है  /
बचपन , यौवन से अंत तलक , नारी की नियति विवशता है /