रश्क-ए- सद गुलज़ार शहरा, ऐ हसीनाने अवध
अब कहाँ शाम-ए- अवध, रश्क-ए-नज़ारे लखनऊ
वह नवाबाने नफ़ासत, वह बहारे लखनऊ.
वो अदब, वो कायदा, तहजीब, वो शान-ए- अवध
वो बहार-ए-खुल्द, वो रौनक, वो ईमान-ए- अवध
शायरों की महफ़िलों का यादगार-ए- लखनऊ
है कहाँ वो किस्सा गो, नगमा निगारे लखनऊ
अब कहाँ शाहानापन वो, और वो नाज़-ओ-अदा
मंदिरों की घंटियाँ और वो अज़ानों की सदा
गंगा-जमनी तरबियत का वो दयार-ए-लखनऊ
मुल्क की चादर का वो सलमा सितारे लखनऊ
महफ़िलों की शोखियाँ वो और लफ़्ज़ों की मिठास
और वो उडती पतंगें गोमती के आस-पास
वो तमद्दुन की कशिश ,वो हुस्न-ए-ज़ारे लखनऊ
वो सुकून-ए-दिल, वो दिलवर, वो करार-ए-लखनऊ
3 comments:
लखनऊ की शान में बहुत अच्छी रचना
बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ में आपने बयान किया है शान-ए-अवध।
sangeeta ji avam Manoj ji
rachna pasand aayi aur apne saraha,aabhar,dhanyawad.
S.N.Shukla
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