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Wednesday, June 29, 2011

(73) वह सकुचाती, शर्माती सी

वह सकुचाती, शर्माती सी , नाजों के बीच पली जैसी ,
मानो बगिया के बीच खिली हो , कोमल कुसुम कली जैसी /

वह श्वेत धवल परिधान युक्त , थी भीड़ मध्य भी अलग- थलग ,
हम अपलक उसमें खोये से , वह मूरत मोम ढली जैसी  /

वह स्मित, मृदु स्वर में बातें, अधराधर का उठना- गिरना ,
पुष्पों से ज्यों, मधु रस वर्षा ,  मिश्री की लगे डली जैसी   /

वह विधना की अनुपम कृति सी , वह देवलोक की देवि सदृश ,
साकार कल्पना की छवि सी ,  भोली  सी  और  भली  जैसी /

शारदा, भवानी, लक्ष्मी ज्यों, आयी हो धरकर बाल रूप  ,
वह तेजस, वह लावण्य , लगे जैसे वृषभानु लली  जैसी  / 

7 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत कोमल और सुन्दर रचना ...

मनोज कुमार said...

अहा हा हा ... पंत, गुप्त जैसे दिनों की याद ताज़ा हो गई।

S.N SHUKLA said...

aabhar, dhanyawad Sangeeta ji

Sumit Patil said...

bahut komal shbd prayog, sunder rachna ........

upendra shukla said...

wah shukla ji kavita toh bahut acchi hai

रविकर said...

सुन्दर शब्द सामंजस ||

S.N SHUKLA said...

Manoj ji,
Sumit Patil ji,
Upendra Shukla ji,
Ravikar ji
aap sabaka bahut aabhari hoon,dhanyawad .