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Friday, June 3, 2011

(55) ठहर जा वरना अभी

मित्र तुम विषधर अगर ,तो मैं गरल पायी सदाशिव ,
इस जगत का ,मैं हलाहल ही सदा पीता रहा हूँ .
तुम अकेले क्या डराओगे मुझे फुफकार कर के ,
आदि से ही विषधरों के मध्य मैं जीता रहा हूँ .

तोड़ सकता हूँ तुम्हारे दांत ,चाहूं तो अभी पर ,
क्या करूं ,प्रतिकार की मन भावना आती नहीं है .
और तुम मुझको निबलतम मान कर फुफकारते हो
क्योंकि दुर्जन आत्मा ,सदभाव अपनाती नहीं है .

सोचता था ,तुम स्वयं ही समय से कुछ सीख लोगे ,
किसी दिन  विषदंत अपने खुद गडाना छोड़ दोगे .
याकि शायद खुद तुम्हारी अंतरात्मा जाग  जाये ,
और अपनी धृष्टता को तुम स्वयं ही मोड़ दोगे .

क्षम्य थी फुंकार ,लेकिन दंश अब तुम दे रहे हो ,
बस मुझे " भोला " समझकर करवटें तुम ले रहे हो .
रूप प्रलयंकर दिखाने को विवश मुझको करो मत ,
क्यों हमारे धैर्य की , इतनी परीक्षा ले रहे हो

तीसरा यदि चक्षु ही बस खोल दूं मैं ,तो तुम्हारा
जायगा अस्तित्व  मिट,यह मैं स्वयं भी जानता हूँ .
घाव पर ही घाव देते जा रहे ,कितना सहूँगा ,
ठहर जा- वरना अभी बस पाशुपति मैं तानता हूँ .

1 comments:

Anonymous said...

SHUKLA JI
aap ki rachnayen main lagatar padhta raha hun. Ye rachnayen mere man ko chhooti hain. aapke shabdon ka chayan kamal ka hai.vastav men bahut sundar rachna.