पल रहा अन्याय उर में , तो उसे अभिव्यक्ति भी दो ,
गाँठ मन की खोल दो, अंतःकरण की शक्ति भी दो /
देश यह पालक पिता है और धरती माँ सभी की ,
इसलिए इसको समर्पण भाव दो,अनुरक्ति भी दो /
मानता हूँ कुछ जबानों पर यहाँ ताले जड़े हैं ,
घाव भी हैं और पावों में बहुत छाले पड़े हैं /
किन्तु क्या बस इसलिए चुपचाप सब सहते रहोगे ?
देश का इतिहास , अस्सी घाव तन, फिर भी लड़े हैं /
प्रश्न केवल यह नहीं है , आज क्या कुछ हो रहा है ,
प्रश्न यह है, विश्व में भारत विभव क्यों खो रहा है ?
देश के सम्मान का दायित्व सारे देश पर है ,
इसलिए रोको उसे, जो भी अनर्गल हो रहा है /
जी चुके अपनी, मगर कर्तव्य तो अवशेष ही है ,
धर्म का अगला चरण, अगली विधा यह देश ही है /
नयी पीढ़ी के लिए भी , पथ बनाना है तुम्हें ही ,
बूँद से चूके , घड़ों से पूरना फिर क्लेश ही है /
आज सारे देश में हर ओर केवल वेदना है ,
और शासक वर्ग की भी मर चुकी संवेदना है /
धूल- कूड़ा है बहुत, अब आंधियाँ फिर से उठाओ ,
व्यूह का यह द्वार अंतिम भी तुम्हें ही भेदना है /
11 comments:
एक सशक्त रचना।
Manoj ji,
rachana pasand aayee, aabhari hoon
बहुत बढ़िया रचना!
सभी छन्द बहुत खूबसूरत हैं!
प्रश्न केवल यह नहीं है , आज क्या कुछ हो रहा है ,
प्रश्न यह है, विश्व में भारत विभव क्यों खो रहा है ?
देश के सम्मान का दायित्व सारे देश पर है ,
इसलिए रोको उसे, जो भी अनर्गल हो रहा है /
आपकी यह रचना पढ़ कर कवि रामधारी सिंह "दिनकर " की याद हो आई ..बहुत ओज पूर्ण रचना
Sangeeta ji,
aapane to mujhe ashman par bitha diya.Dinakar ji jaise mahan kavi se tulana ki bat soch bhee naheen sakata .phir bhee rachana aapako pasand aayee , aabhari hoon .
बहुत खूबसूरत |
सोखे सागर चोंच से, छोट टिटहरी नायँ |
इक-अन्ने से बन रहे, रुपया हमें दिखाय ||
* * * * *
सौदागर भगते भये, डेरा घुसते ऊँट |
जो लेना वो ले चले, जी-भर के तू लूट ||
* * * * *
कछुआ-टाटा कर रहे , पूरे सारोकार |
खरगोशों की फौज में, भरे पड़े मक्कार ||
* * * * *
कोशिश अपने राम की, बचा रहे यह देश |
सदियों से लुटता रहा, माया गई विदेश ||
* * * * *
कोयल कागा के घरे, करती कहाँ बवाल |
चाल-बाज चल न सका, कोयल चल दी चाल ||
* * * * *
रिश्तों की पूंजी जमा, मनुआ धीरे खर्च |
एक-एक को ध्यान से, ख़ुशी-ख़ुशी संवर्त ||
* * * * *
प्रगति पंख को नोचता, भ्रष्टाचारी बाज |
लेना-देना क्यूँ करे , सारा सभ्य समाज ||
* * * * *
कुर्सी के खटमल करें, चमड़ी में कुछ छेद |
मर जाते अफ़सोस कर, निकले खून सफ़ेद ||
जी चुके अपनी, मगर कर्तव्य तो अवशेष ही है ,
धर्म का अगला चरण, अगली विधा यह देश ही है /
नयी पीढ़ी के लिए भी , पथ बनाना है तुम्हें ही ,
बूँद से चूके , घड़ों से पूरना फिर क्लेश ही है /
bahut sunder rachna
राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण एक सशक्त रचना...बधाई
Dr. Roopchandra Shastri ji,
Ravikar ji,
Neelansh ji,
Chandra Bhooshan Mishra ji
aap sabaka aabhari hoon, aap sabhee ko dhanyawad.
प्रश्न केवल यह नहीं है , आज क्या कुछ हो रहा है ,
प्रश्न यह है, विश्व में भारत विभव क्यों खो रहा है ?
देश के सम्मान का दायित्व सारे देश पर है ,
इसलिए रोको उसे, जो भी अनर्गल हो रहा है /
har deshwasi ko apna kartavvy yad dilati prerak rachna jise aapne bahut hi prabhaavshali shabd kosh se sawara hai.
aabhar.
Anamika ji,
aabhari hoon,Apaki is hausala afjai ke liye shukriya.
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