मानो बगिया के बीच खिली हो , कोमल कुसुम कली जैसी /
वह श्वेत धवल परिधान युक्त , थी भीड़ मध्य भी अलग- थलग ,
हम अपलक उसमें खोये से , वह मूरत मोम ढली जैसी /
वह स्मित, मृदु स्वर में बातें, अधराधर का उठना- गिरना ,
पुष्पों से ज्यों, मधु रस वर्षा , मिश्री की लगे डली जैसी /
वह विधना की अनुपम कृति सी , वह देवलोक की देवि सदृश ,
साकार कल्पना की छवि सी , भोली सी और भली जैसी /
शारदा, भवानी, लक्ष्मी ज्यों, आयी हो धरकर बाल रूप ,
वह तेजस, वह लावण्य , लगे जैसे वृषभानु लली जैसी /
7 comments:
बहुत कोमल और सुन्दर रचना ...
अहा हा हा ... पंत, गुप्त जैसे दिनों की याद ताज़ा हो गई।
aabhar, dhanyawad Sangeeta ji
bahut komal shbd prayog, sunder rachna ........
wah shukla ji kavita toh bahut acchi hai
सुन्दर शब्द सामंजस ||
Manoj ji,
Sumit Patil ji,
Upendra Shukla ji,
Ravikar ji
aap sabaka bahut aabhari hoon,dhanyawad .
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