जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
गुल, गुलिस्तान के आह भरते रहे , कसमसाती रहीं डालियाँ उम्र भर /
अपने खाली कटोरे सिसकते रहे, उनकी मेजों पे चम्मच खनकते रहे ,
बाग़ वे सब्ज हमको दिखाते रहे , हम बजाते रहे तालियाँ उम्र भर /
देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे , वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर /
मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /
कितना ढाएँगे वे जुल्म और कब तलक, एक दिन वे भी तो ख़ाक में जायेंगे ,
जो जला वह बुझा , जो फरा सो झरा , सोच सहते रहे गालियाँ उम्र भर /
जिस्म इंसान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
-S.N.Shukla
गुल, गुलिस्तान के आह भरते रहे , कसमसाती रहीं डालियाँ उम्र भर /
अपने खाली कटोरे सिसकते रहे, उनकी मेजों पे चम्मच खनकते रहे ,
बाग़ वे सब्ज हमको दिखाते रहे , हम बजाते रहे तालियाँ उम्र भर /
देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे , वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर /
मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /
कितना ढाएँगे वे जुल्म और कब तलक, एक दिन वे भी तो ख़ाक में जायेंगे ,
जो जला वह बुझा , जो फरा सो झरा , सोच सहते रहे गालियाँ उम्र भर /
जिस्म इंसान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
-S.N.Shukla
30 comments:
मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हकीकत बयान करती यह रचना अच्छी लगी...शुभकामनायें !!
संजय भास्कर
आदत...मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे , वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर /
मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /
तीखी धार है .. सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ......बधाई.
मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /
बहुत गहरा और कटु यथार्थ..समाज आज दो टुकड़ों में बंट गया है, एक तरफ चंद खुदगर्ज और दूसरी ओर आम इंसान...
शतरंजों के मोहरे बन हम जूझ रहे थे, जूझ रहे हैं।
अच्छे शब्द है बेहद ही बढिया लगे
घोर विषमता की सच्ची तस्वीर!
behtareen gazal sirji..
kaaj ka kadva sach dikhati hui racha..
उम्र भर बस यूं ही जीते रहे ...हकीकत ।
SAMAJ ME FAILY KURITIYON KO BHEDTI PRABHAAVSHALI RACHNA.
Sanjay Bhasker ji,
Sangita ji,
अभिभूत हूँ आपकी शुभकामनाओं को पाकर.
Vidya ji,
Anita ji,
Pravin pandey ji,
धन्यवाद आपके स्नेहपूर्ण समर्थन का .
Sandip panwar ji,
Anupama ji,
Aditya ji,
आपकी सम्माननीय टिप्पणी का बहुत- बहुत आभार.
Rajanish Tiwari ji,
Anamika ji,
aapakaa sneh aur samarthan hamen nav srajan kee prerana deta hai ,aabhaar.
बहुत खूब सर!
सादर
बढ़िया लिखा है.
तीखी धारदार रचना।
युग की विडंबना को मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रदान की है आपने -बधाई !
बहुत ही कोमलता से लिखी गयी कठोर पंक्तियाँ, क्योंकि सच तो कठोर होता ही है!! आभार आपका!!
इंसानी मज़बूरियां,कुछ तकदीर की दी गई,
कुछ,अपनों ने दीं.जनमानस की पीडा को
दर्शाती गज़ल.
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे ,
वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर
bahut khoob .
ek misre ne hi jaan le li.
Waahhhhhhhhhh
दिल से लिखी गयी और दिल पर असर करने वाली रचना , बधाई तो लेनी ही होगी
Ravikar ji,
Sangita ji,
Yashavant Mathur ji,
आप मित्रों का स्नेह और समर्थन हमारा मार्गदर्शक है, आभार.
Varjya naari swar ,
Vandana ji,
Pratibha ji,
आप शुभचिंतकों ने सराहा, मुझे बल मिला , आभार, धन्यवाद.
Lalit verma ji,
Manake ji,
Vishal ji,
आपकी शुभकामनाओं का ह्रदय से आभारी हूँ.
P K Sharma ji,
आपके समर्थन का आभारी हूँ.
Sunil Kumar ji,
आपका स्नेहाशीष मिला , आभारी हूँ.
कविता के अर्थ हमारे परिवेश में घटित हो रहे हैं।
अच्छी कविता।
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