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Tuesday, November 22, 2011

(120) जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए-----

जिस्म इन्सान के गोलियाँ बन गए , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
गुल, गुलिस्तान के आह भरते रहे  , कसमसाती  रहीं  डालियाँ  उम्र भर /

अपने खाली कटोरे सिसकते रहे,  उनकी मेजों पे चम्मच खनकते रहे ,
बाग़ वे सब्ज हमको दिखाते रहे  , हम बजाते रहे तालियाँ  उम्र  भर  /

देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे  ,  वे  उठाते  रहे  उँगलियाँ उम्र भर  /

मेरे घर खोदकर बन गयीं  कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /

कितना ढाएँगे वे जुल्म और कब तलक, एक दिन वे भी तो ख़ाक में जायेंगे ,
जो जला वह बुझा , जो फरा सो झरा , सोच सहते  रहे  गालियाँ  उम्र भर  /

जिस्म इंसान के गोलियाँ बन गए  , और बदलती रहीं पालियाँ उम्र भर /
                
                                                                        -S.N.Shukla

30 comments:

संजय भास्‍कर said...

मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,

हकीकत बयान करती यह रचना अच्छी लगी...शुभकामनायें !!

संजय भास्कर
आदत...मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

देने वाले निवालों को मोहताज़ हैं , माँगने वाले सर पर रखे ताज हैं ,
हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे , वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर /

मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /

तीखी धार है .. सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति

vidya said...

बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ......बधाई.

Anita said...

मेरे घर खोदकर बन गयीं कोठियाँ, आदमी से बड़ी हो गयीं रोटियाँ ,
हम बचाते रहे टूटता संग- ए - दर , वे गिराते रहे बिजलियाँ उम्र भर /

बहुत गहरा और कटु यथार्थ..समाज आज दो टुकड़ों में बंट गया है, एक तरफ चंद खुदगर्ज और दूसरी ओर आम इंसान...

प्रवीण पाण्डेय said...

शतरंजों के मोहरे बन हम जूझ रहे थे, जूझ रहे हैं।

SANDEEP PANWAR said...

अच्छे शब्द है बेहद ही बढिया लगे

अनुपमा पाठक said...

घोर विषमता की सच्ची तस्वीर!

Aditya said...

behtareen gazal sirji..
kaaj ka kadva sach dikhati hui racha..

रजनीश तिवारी said...

उम्र भर बस यूं ही जीते रहे ...हकीकत ।

अनामिका की सदायें ...... said...

SAMAJ ME FAILY KURITIYON KO BHEDTI PRABHAAVSHALI RACHNA.

S.N SHUKLA said...

Sanjay Bhasker ji,
Sangita ji,

अभिभूत हूँ आपकी शुभकामनाओं को पाकर.

S.N SHUKLA said...

Vidya ji,
Anita ji,
Pravin pandey ji,


धन्यवाद आपके स्नेहपूर्ण समर्थन का .

S.N SHUKLA said...

Sandip panwar ji,
Anupama ji,
Aditya ji,
आपकी सम्माननीय टिप्पणी का बहुत- बहुत आभार.

S.N SHUKLA said...

Rajanish Tiwari ji,
Anamika ji,

aapakaa sneh aur samarthan hamen nav srajan kee prerana deta hai ,aabhaar.

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत खूब सर!


सादर

Unknown said...

बढ़िया लिखा है.

vandana gupta said...

तीखी धारदार रचना।

प्रतिभा सक्सेना said...

युग की विडंबना को मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रदान की है आपने -बधाई !

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत ही कोमलता से लिखी गयी कठोर पंक्तियाँ, क्योंकि सच तो कठोर होता ही है!! आभार आपका!!

मन के - मनके said...

इंसानी मज़बूरियां,कुछ तकदीर की दी गई,
कुछ,अपनों ने दीं.जनमानस की पीडा को
दर्शाती गज़ल.

विशाल said...

हम गुनहगार जैसे भुगतते रहे ,
वे उठाते रहे उँगलियाँ उम्र भर

bahut khoob .
ek misre ne hi jaan le li.

PK SHARMA said...

Waahhhhhhhhhh

Sunil Kumar said...

दिल से लिखी गयी और दिल पर असर करने वाली रचना , बधाई तो लेनी ही होगी

S.N SHUKLA said...

Ravikar ji,
Sangita ji,
Yashavant Mathur ji,

आप मित्रों का स्नेह और समर्थन हमारा मार्गदर्शक है, आभार.

S.N SHUKLA said...

Varjya naari swar ,
Vandana ji,
Pratibha ji,


आप शुभचिंतकों ने सराहा, मुझे बल मिला , आभार, धन्यवाद.

S.N SHUKLA said...

Lalit verma ji,
Manake ji,
Vishal ji,
आपकी शुभकामनाओं का ह्रदय से आभारी हूँ.

S.N SHUKLA said...

P K Sharma ji,

आपके समर्थन का आभारी हूँ.

S.N SHUKLA said...

Sunil Kumar ji,

आपका स्नेहाशीष मिला , आभारी हूँ.

महेन्‍द्र वर्मा said...

कविता के अर्थ हमारे परिवेश में घटित हो रहे हैं।
अच्छी कविता।

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