अहले खुदा की राह में , नफ़रत न घोलिये /
एहसास-ए-रंज -ओ-गम , न तराजू से तोलिये /
खुद ! काँच के मकान में , बैठे हुए हैं जब,
औरों के लिए , हाथ में पत्थर न तोलिये /
गीता हो, बाइबिल हो या गुरुग्रंथ हो , कुरान ,
सबके उसूल एक , ज़रा वर्क खोलिए /
कौमों की सियासत में मुल्क झोंकने वालों ,
ये लफ्ज़ हैं हरजाई , संभलकर के बोलिए /
वे ज़ख्म पुराने ही , अभी तक नहीं भरे ,
मरहम न दे सकें , तो उन्हें यूँ न खोलिए /
15 comments:
वाह ...बहुत खूब कहा है आपने ..।
वाह्…………शानदार प्रस्तुति।
सम्हल कर बोलना बस सीख लें ये।
प्रिय श्री शुक्ल जी बहुत सुन्दर रचना सुन्दर सन्देश ....काश देश वासी हमारे विचार करें ...
भ्रमर ५
आपने बिल्बुल सही लिखा है
"कांचा के मकान में बैठे हुए है जब ,औरों के लिए पत्थर न तोलिये "
बहुत सुन्दर रचना |
आशा
sundar sandesh ke sath sundar rachna ...
S.N. शुक्ला जी नमस्ते !
आप जैसे विद्वान का मेरे ब्लॉग पर आना हुआ, मै कृतज्ञ हूँ,
आप की सहिष्णुता और सदभाव का सन्देश देती रचना ने बहुत प्रभावित किया....
सार्थक प्रस्तुति....
सादर...
प्रेरणा देती ग़ज़ल।
सर्व-धर्म-समभाव का उद्घोष करता शेर सबसे अच्छा लगा।
Sada ji,
Vandana ji,
Pravin pandey ji,
Surendra shukla ji,
आप मित्रों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएं ,मेरी प्रेरक हैं , आभार
Dr. Roopchandra shastri ji,
चर्चा मंच में स्थान देने के लिए आभार ,आपका स्नेह , हमारा संबल है.
Asha ji,
Sharda ji,
Pradip ji
रचना की प्रशंसा के लिए आभारी हूँ, इस स्नेह की हमेशा अपेक्षा है.
S. M. Habeeb ji,
Mahendra verma ji
इस स्नेह की हमेशा अपेक्षा है.
, आभार
very nice sir...nice to see ur blog.
Vidya ji,
आपकी शुभकामनाओं का ह्रदय से आभारी हूँ.
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