आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को,
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको/
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर,
मर गयी फुलिया बेचारी थी कुएँ में डूबकर/
है सधी सिर पर बिनौली कंडीयों की टोकरी,
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी/
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा,
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार की मोनालिसा/
कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबरायी हुयी,
लग रही जैसे कली बेला कि कुम्भालाई हुयी/
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसे मौन है,
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है/
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को,
सो रही बूढी ओसारे में बिछाए खात को/
डूबती सूरज कि किरनें खेलती थीं रेत पर,
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से/
आ रही थी वह चली खोयी हुयी जज्बात में,
क्या पता उसको कि कोई भेंडिया है घात में/
होनी से बेखबर कृष्णा, बेखबर राहों में थी,
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी/
चीख निकली भी तो होंठो में ही घुटकर रह गयी,
छटपटाई पहले फिर ढीली पडी फिर ढह गयी/
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया,
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया/
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में,
होश में आयी तो कृष्णा थी पिता की गोद में/
जुड़ गयी थी भीड़ जिसमें जोर था शैलाब था,
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था/
badh ke mangal ne kahaa , kaakaa too kaise maun hai .
poochh to betee se aakhir vo darindaa kaun hai .
कोई भी हो संघर्ष से हम पाँव मोडेंगे नहीं,
कच्चा खा जायेंगे जिन्दा उनको छोड़ेंगे नहीं/
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें,
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें/
बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से,
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से/
पड़ गयी इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में,
वे एकट्ठे हो गए थे सरपंच के दालान में/
द्रष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर,
देखिये सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंककर/
क्या कहें सरपंच भाई क्या जमाना आ गया,
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया/
कहती है सरकार की आपस में मिलझूल कर रहो,
सूअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो/
देखिये ना यह जो कृष्णा है चमारों के यहाँ,
पढ़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहाँ/
जैसे बरसाती नदी अल्हड नशे में चूर है,
हाँथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है/
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ,
फिर कोई बांहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ/
आज सरजू पर अपने श्याम से टकरा गयी,
जाने-अनजाने में लज्जत जिन्दगी की पा गयी/
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गयी,
वरना वह मरदूद बातों को कहने से रही/
जानते है आप मंगल एक ही मक्कार है,
हरखू उसकी शह पे थाणे जाने को तैयार है/
कल सुबह गर्दन अगर नपती है बेटे-बाप की,
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी/
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया,
हाँथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था/
छडिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था,
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था/
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरजोर था,
भोर होते ही वहां का द्रश्य बिलकुल और था/
सर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाँथ में,
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में/
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने,
जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आये सामने/
निकला मंगल झोपडी का पल्ला खोलकर,
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़कर/
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया,
सुन पडा वो माल फिर चोरी का तुने क्या किया/
कैसी चोरी माल कैसा उसने जैसे ही कहा,
एक लाठी फिर पडी बस होश फिर जाता रहा/
होश खोकर वह पडा था झोपडी के द्वार पर,
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर/
मेरा मुंह क्या देखते हो इसके मुंह में थूक दो,
आग लाओ और इसकी झोपडी को फूंक दो/
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी,
बेसहारा निर्बलों की झोपडी जलने लगी/
दूधमुहाँ बच्चा और बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था,
वह अभागा दीं हिंसक भीड़ के घेरे में था/
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे,
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे/
कह दो एन कुत्तों के पिल्लों से की इतराएँ नहीं,
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाएँ नहीं/
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से,
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रुल से/
फिर दहाड़े इनको डंडों से सुधारा जाएगा,
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा/
एक सिपाही ने कहा साईकिल इधर को मोड़ दें,
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें/
बोला थानेदार मुर्गे की तरह मत बाग़ दो,
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो/
ये समझते हैं की ठाकुर से उलझना खेल है,
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है/
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अक्सर यह सवाल,
कैसा है कहिये न सरजू पर की कृष्णा का हाल/
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को,
साद रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को/
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को,
प्रांत के मंत्री गडों को केंद्र की सरकार को/
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ, आयें मेरे गाँव में,
तट पे नदियों के घनी अमराएयों की छाँव में/
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही है,
या अंहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही है/
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए,
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए/
यह रचना सुप्रसिद्ध जनकवि अदम गोंडवी की है/ हमारी हार्दिक श्रृद्धांजलि
12 comments:
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए,
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए/
अदम गोंडवी की जी की रचना पढवाने के लिये आभार,,,,,हार्दिक श्रृद्धांजलि
MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
मर्म को भेदती कविता .......कितना निकृष्ट हो जाता है समाज ...जब सारी सच्चाई जानने के बावजूद, मूक बधिर बना वह सब देखता रहता है ......करता कुछ नहीं..!!!!
इस रचना को यहाँ पढ़वाने के लिए आभार
सच्ची कलम से निकला मजलूमों का गान ...
अदम साहब ने कलम लेकर अंतिम समय तक संघर्ष लिया ... नमन है उनको ...
जितनी बार पढ़ा, हृदय भेद गयी यह कविता।
झकझोरती कविता...
आभार
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता !
सुन्दर कविता ..आभार
achchhi rachna...dukh ke jangal ki kanton-bhari par jaroori sair karwai aapne...
अत्यंत मार्मिक...ये रचना साझा करने के लिए...धन्यवाद...दिल की बातें सीधे दिल पे लगतीं हैं...
kavita ke madhyam se garibon ka dard or dabango ki dabangi sachi dastan lagti hai .
marmsaprsi rachna....
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