पिछले करीब दस माह से कैंसर से लड़ रहा हूँ। यह जंग अभी भी जारी है , इसलिए ब्लॉग पर सक्रियता भी बाधित रही। आप मित्रों की शुभकामनाओं का ही असर है कि अब बहुत सुधार है। आशा है मेरी अनुपस्थिति और जवाब न दे पाने की विवशता को समझेंगे।
हिम सदृश मुझको गलना ही है
सूर्य ढलने लगा , पर थका मैं नहीं ,
क्योंकि बाकी बहुत काम अब तक भी है।
तुम चलो ,मैं अभी शेष निबटाऊँगा ,
क्योंकि बाकी बहुत शाम अब तक भी है।
अपना दायित्व सौपूं किसी को नहीं ,
यह तो जी का चुराना हुआ काम से।
जो मेरा धर्म है , वह निभाऊँगा मैं ,
जाना जाएगा उसको मेरे नाम से।
तुम भरोसा रखो , मैं थकूंगा नहीं ,
काम जब तक न ये पूर्ण हो जायेगा।
काम पूरा न हो और सोने लगूं ,
क्या ये संभव है मन नीद ले पायेगा ?
वह शयन क्या , उनीदे रहे रात भर ,
रात भर करवटें ले बिताया किये।
रात्रि थोड़ी भले शेष रह जायेगी ,
किन्तु उतनी बहुत होगी मेरे लिए।
मानता मार्ग लंबा है फिर भी मुझे ,
लक्ष्य की प्राप्ति तक इसपे चलना ही है।
भर न जाए नदी , धार में गति न हो ,
तब तलक हिम सदृश मुझको गलना ही है।
- एस .एन .शुक्ल