कभी रस्ता नहीं मिलता
जमीं महगी , दुकाँ महगी , दवा महगी, दुआ महगी ,
फ़कत इनसान के, कुछ भी यहाँ सस्ता नहीं मिलता।
कभी जोरू के ताने, तो कभी बच्चों की फरमाइश ,
गिरस्ती में वही हर रोज जैसी जोर आजमाइश ,
गरीबों की किसी बस्ती में, जब भी झाँक कर देखो ,
किसी घर में बशर कोई, कहीं हँसता नहीं मिलता।
सड़क पर , चौक - चौबारों, मदरसों, अस्पतालों में,
मस्जिद-ओ-चर्च, गुरुद्वारों में, मंदिर में, शिवालों में,
जिधर देखो, वहीं बस भीड़ ख्वाहिशमन्द सी लेकिन,
कहीं इनसान से इनसान का, रिश्ता नहीं मिलता।
ये सारी ज़िंदगी की दौड़ का , हासिल यही अक्सर ,
कभी मंजिल नहीं मिलती , कभी रस्ता नहीं मिलता।
-एस .एन .शुक्ल
ब्लॉग लिंक :snshukla.blogspot.com
10 comments:
बहुत खूब ....
सकल समस्या, जूझ रहे हम।
सार्थक रचना ...
वास्तविकता की धरा को छूती हुई ...
सादर !
bahut achcha
jivan ki kasamakash aur uljhanon ko bahut behtareen tareeke se prastut kiya hai aapne, dhanyvaad aur badhai!!!!!!
It's an awesome article in favor of all the internet users; they will get advantage from it I am sure.
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बेहतरीन यथार्थपरक प्रस्तुति, बधाई
Bahot dilkash
SA Feroz
Behtereen peshkash
SA Feroz
showing the reality with words..good post..God love u
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