देश को खाते रहे
दीमकों से हम इधर घर को बचाते रह गए ,
और कीड़े कुर्सियों के, देश को खाते रहे.
हम इधर लड़ते रहे आपस में दुश्मन की तरह,
उधर सरहद पार से घुसपैठिये आते रहे .
जल रहा था देश , दंगों से, धमाकों से इधर ,
शीशमहलों में उधर वे जाम टकराते रहे .
झूठ की अहले सियासत और अपना ऐतबार,
वे दगा करते हम फिर भी आजमाते रहे .
मुफलिसी से तंग हम, करते गुजारिश रह गए,
वे हमें हर बार केवल , ख्व़ाब दिखलाते रहे .
प्याज-रोटी भी हुआ मुश्किल, गरानी इस कदर,
मुल्क मालामाल है , यह गीत वे गाते रहे .
- एस.एन.शुक्ल
दीमकों से हम इधर घर को बचाते रह गए ,
और कीड़े कुर्सियों के, देश को खाते रहे.
हम इधर लड़ते रहे आपस में दुश्मन की तरह,
उधर सरहद पार से घुसपैठिये आते रहे .
जल रहा था देश , दंगों से, धमाकों से इधर ,
शीशमहलों में उधर वे जाम टकराते रहे .
झूठ की अहले सियासत और अपना ऐतबार,
वे दगा करते हम फिर भी आजमाते रहे .
मुफलिसी से तंग हम, करते गुजारिश रह गए,
वे हमें हर बार केवल , ख्व़ाब दिखलाते रहे .
प्याज-रोटी भी हुआ मुश्किल, गरानी इस कदर,
मुल्क मालामाल है , यह गीत वे गाते रहे .
- एस.एन.शुक्ल